स्वर्णिम नियम
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"दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, जैसा अपने साथ चाहते हो" - यही स्वर्णिम नियम (Golden Rule) है। यह सिद्धान्त अधिकांश धर्मों और संस्कृतियों में मौजूद है।
इस सिद्धान्त के दो रूप (सकारात्मक रूप और नकारात्मक रूप) देखने को मिलते हैं-
- (१) दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा अपने साथ चाहते हो (सकारात्मक रूप)
- (२) दूसरों के साथ वैसा व्यवहार मत करो जैसा व्यवहार अपने साथ नहीं चाहते हो (नकारात्मक रूप)
सन १९९३ में विश्व के प्रमुख धर्मों के १४३ नेताओं ने स्वर्णिम नियम को " वैश्विक धर्म घोषणा " (Declaration Toward a Global Ethic) के आधार के रूप में स्वीकार किया।[1] [2]ग्रेग एम एपस्टीन के अनुसार 'स्वर्णिम नियम' की संकल्पना सभी धर्मों में थोड़ी-बहुत मात्रा में अवश्य है। लेकिन स्वर्णिम नियम को स्वीकार करने कए लिए "ईश्वर में विश्वास" होना जरूरी नहीं है। [3]
भारतीय धर्मों में स्वर्णिम नियम
[संपादित करें]- तस्माद्धर्मप्रधानेन भवितव्यं यतात्मना ।
- तथा च सर्वभूतेषु वर्तितव्यं यथात्मनि ॥
- (इसलिए धर्म को प्रधान मानते हुए और आत्म-संयम से, सभी प्राणियों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा अपने साथ करते हैं।)
इसी प्रकार,
- श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
- आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥ (पद्मपुराण)
- (धर्म का सर्वस्व सुनो और सुनकर उसे धारण कर लो। जो अपने प्रतिकूल हो वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए।)
चाणक्यनीति में कहा गया है-
- मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्ठवत्।
- आत्मवत् सर्वभूतेषु, यः पश्यति सः पण्डितः ॥
- (जो दूसरे की पत्नी को माता के समान, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान देखता है और सभी जीवों को अपने समान देखता है, वही पण्डित है।)
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Towards a Global Ethic Archived 2021-04-16 at the वेबैक मशीन (An Initial Declaration) ReligiousTolerance.org. – Under the subtitle, "We Declare," see third paragraph. The first line reads, "We must treat others as we wish others to treat us."
- ↑ Parliament of the World's Religions – Towards a Global Ethic" (PDF). Archived from the original (PDF) on 11 April 2013. Retrieved 12 September 2013.
- ↑ Esptein, Greg M. (2010). Good Without God: What a Billion Nonreligious People Do Believe. New York: HarperCollins. p. 115. ISBN 978-0-06-167011-4.