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शब्दकल्पद्रुम

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शब्दकल्पद्रुम संस्कृत का आधुनिक युग का एक महाशब्दकोश है। यह स्यार राजा राधाकांतदेव बाहादुर द्वारा निर्मित है। इसका प्रकाशन १८२८-१८५८ ई० में हुआ। यह पूर्णतः संस्कृत का एकभाषीय कोश है और सात खण्डों में विरचित है। इस कोश में यथासंभव समस्त उपलब्ध संस्कृत साहित्य के वाङ्मय का उपयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त अंत में परिशिष्ट भी दिया गया है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐतिहसिक दृष्टि से भारतीय-कोश-रचना के विकासक्रम में इसे विशिष्ट कोश कहा जा सकता है। परवर्ती संस्कृत कोशों पर ही नहीं, भारतीय भाषा के सभी कोशों पर इसका प्रभाव व्यापक रूप से पड़ता रहा है।

यह कोश विशुद्ध शब्दकोश नहीं है, वरन् अनेक प्रकार के कोशों का शब्दार्थकोश, प्रर्यायकोश, ज्ञानकोश और विश्वकोश का संमिश्रित महाकोश है। इसमें बहुबिधाय उद्धरण, उदाहरण, प्रमाण, व्याख्या और विधाविधानों एवं पद्धतियों का परिचय दिया गया है। इसमें गृहीत शब्द 'पद' हैं, सुवंततिंगन्त प्रातिपदिक या धातु नहीं।

शब्दकल्पद्रुम में पाणिनिव्याकरण के अनुसार प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति दी गई है, शब्दप्रयोग के उदाहरण उद्धृत हैं तथा शब्दार्थसूचक कोश या इतर प्रामाणों के समर्थन द्बारा अर्थनिर्देश किया गया है। पर्याय भी दिए गए है। धातुओं से व्युत्पन्न क्रियापदों के उदाहरण भी दिए गए हैं। पदोदाहरण आदि भी हैं। कुछ थोड़े अतिप्रचलित वैदिक शब्दों के अतिरिक्त शेष नहीं हैं। शब्दों की विस्तृत व्याख्या में दर्शन, पुराण, वैद्यक धर्मशास्त्र आदि नाना प्रकारों के लंबे लंबे उद्धरण भी दिए गए है। तंत्र मंत्र, शास्त्र, स्त्रीत्न आदि से उद्धृत करते हुए अनेक संपूर्ण स्त्रोत्, तांत्रिक मंत्र आदि के भी विस्तृत अंश उद्धारित हैं। ज्योतिषशास्त्र और भारतीय विद्याओं के परिभाषिक शब्दों का भी उन विद्याओं के विशेषज्ञों के सहयोग से सप्रमाण विवरण दिया गया है। इसमें कोश की रचनापरिपाटी के विषय में भी विस्तृत वक्तव्य दिया गया है। उन कोशों की सूची भी दी गई है जो उपलब्ध थे और जिनस शब्दसंग्रह किया गया है। साथ ही विभिन्न कोशों में उल्लिखित पर अनुपलब्ध कोशों अथवा कोशकारों के नाम भी भूमिका में दिए गए हैं। लेखक स्वयमपि संस्कृत वैदुष्य के अतिरिक्त बांग्ला, हिंदी, अरबी, फारसी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं का अच्छा जानकार था।

नीचे शब्दकल्पद्रुम का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत है-

अक्ष, न ऊ व्याप्तौ। संहतौ। इति कविकल्पद्रमः। न अक्ष्णोति धनं लोकः। व्याप्नोति राशीकरोति वा इत्यर्थः। ऊ आक्षिष्टां। आष्टां। इति दुर्गादासः।

अक्ष, ऊ व्याप्तौ। संहतौ। इति कविकल्पद्रुमः। अक्षति धनं लोकः। व्याप्नोति राशीकरोति वा इत्यर्थः। ऊ आक्षिष्टां। आष्टां। इति दुर्गादासः ॥

अक्षं, क्ली, (अक्ष्णोति अक्षति वा अक्ष्यते वा अनेन अत्र वा अक्षू व्याप्तौ। पचाद्यच् घं वा। अश्नुते अत्यर्थं अशू व्याप्तौ। अशेर्देवने इति सो वा। ) इन्द्रियं। (यथा विष्णुपुराणे, --

“शब्दादिष्वनुरक्तानि निगृह्याक्षाणि योगवित्।
कुर्य्याच्चित्तानुकारीणि प्रत्याहारपरायणः” ॥)

सौवर्ंचलं। तुथं। इति मेदिनी। (चक्षुः। यथा रामायणे, -- “सर्व्वे तेऽनिमिषैरक्षैस्तमनुद्रुतचेतसः”। इति। )

अक्षः, पुं, कर्षपरिमाणं। (यथा, -- “ते षोडशाक्षः कर्षोऽस्त्री पलं कर्षचतुष्टयं”। ) पाशकः। (अक्षैरक्षान् वा दीव्यति। इति सिद्धान्तकौमुदी। ) (पाशक्रीडा। यथाह मनुः) -- ‘मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परीवादः स्त्रियो मदः’। ) कलिद्रुमः। इत्यमरः। (विभीतकवृक्षः। यथा छान्दोग्ये -- यथा वै द्वे आमलके द्वे कोले द्वौ वाक्षौ मुष्टिमनुभवति। ) ज्ञातार्थं। शकटः। व्यवहारः। रुद्राक्षः। इन्द्राक्षः। सर्पः। चक्रं। इति मेदिनी। (चक्रधारणदारुभेदः। यथा, --

“छिन्ननास्ये भग्नयुगे तिर्य्यक् प्रतिमुखागते।
अक्षभंगे च यानस्य चक्रभंगे तथैव च” ॥)

आत्मा। रावणपुत्रः। इति हेमचन्द्रः। (यथा रामायणे -- ‘निशम्य राजा समरे सहोत्सुकं कुमारमक्षं प्रसमैक्षताथ वै’। ) जातान्धः। गरुडः। इति शब्दरत्नावली। (शिवः। यथा भारते -- “अक्षश्च रथयोगी च सर्व्वयोगी भहावलः”। इति) संस्कृतपलभा। यथा, --

“चन्द्राश्विनिघ्ना पलभार्द्धिता च
लंकावधिः स्यादिह दक्षिणोक्षः”।

इति भास्यती ॥ “प्रभा शरघ्ना स्वतुरीययोगादक्षः सदा दक्षिणदिक् प्रदिष्टः”। इति जातकार्णवः।

“दक्षिणोत्तररेखायां सा तत्र विषुवत् प्रभा।
शंकुच्छाया हते त्रिज्ये विषुवत् कर्णभाजिते ॥
लम्बाक्षय्ये तयोश्चापे लम्बाक्षौ दक्षिणौ सदा”।

इति सूर्य्यसिद्धान्तः ॥

अक्षकः, पुं, (अक्ष + क) तिनिशवृक्षः। इति रत्नमाला।

अक्षक्रीडा, स्त्री, (अक्षैः या क्रीडा) द्यूतक्रीडा पाशकक्रीडा। यथा। अक्षक्रीडायां व्यासयुधिष्ठिरसंवादः प्रचरति। इति तिथ्यादितत्त्वं ॥ तद्विवरणं चतुरंगशब्दे द्रष्टव्यं ॥ * ॥ कार्त्तिकशुक्लप्रतिपदि तत्क्रीडाविधिर्यथा। ब्रह्मपुराणे, --

“शंकरश्च पुरा द्यूतं ससर्ज सुमनोहरं।
कार्त्तिके शुक्लपक्षे तु प्रथमेऽहनि भूपते ॥
जितश्च शंकरस्तत्र जयं लेभे च पार्व्वती।
अतोऽर्थाच्छंकरो दुःखी गौरी निथं सुखोषिता ॥
तस्मात् द्यूतं प्रकर्त्तव्यं प्रभाते तत्र मानवैः।
तस्मिन् द्यूते जयो यस्य तस्य संवत्सरः शुभः ॥
पराजयो विरुद्धस्तु लब्धनाशकरो भवेत”।

इन्हें भी देखें

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