बृहस्पतिस्मृति
बृहस्पतिस्मृति एक प्रमुख स्मृति है जिसके रचयिता बृहस्पति माने जाते हैं। इसका रचनाकाल 16 वी सदी अनुमानित है। भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे के अनुसार बृहस्पति का समय 15 ई. से 16 ई. के बीच माना जा सकता है।
मिताक्षरा व अन्य भाष्यों में बृहस्पतिस्मृति के लगभग ७०० श्लोक प्राप्त होते हैं, जो व्यवहार के विषय में हैं।
‘बृहस्पतिस्मृति’ को अभी तक सम्पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं हुई है। डॉ. जोली ने इसके ७११ श्लोकों का प्रकाशन किया है जिसमें व्यवहार से सम्बन्धित सिद्धान्तों का वर्णन है। उपलब्ध ‘बृहस्पतिस्मृति’ पर ‘मनुस्मृति’ का प्रभाव दिखाई पड़ता है। अनेक स्थलों पर तो बृहस्पति मनु के संक्षिप्त विवरणों के व्याख्याता सिद्ध होते हैं।
बृहस्पति प्रथम धर्मशास्त्रज्ञ हैं जिन्होंने धन तथा हिंसा के भेद को प्रकट किया है। इसमें भूमिदान, गयाश्राद्ध, व्रषोत्सर्ग, वापी कूप आदि के जीर्णोद्वार आदि विषय हैं।
बृहस्पतिस्मृति में न्यायालयीन व्यवहार विषयक जो विवेचन हुआ है, वह इस स्मृति की विशेषता है। कुछ प्रमुख बातों का विवेचन इस प्रकार है-
- प्रमाण, गवाह, दस्तावेज तथा भुक्ति (कब्जा) न्यायालयीन कार्य के चार अंग हैं।
- फौजदारी और दीवानी मामले दो प्रकार के होते हैं।
- लेन-देन के मामले के १४ तथा फ़ौजदारी मामले के ४ भेद है।
- न्यायाधीश को किसी भी मामले का निर्णय केवल शास्त्र के अनुसार नहीं, बल्कि बुद्धि द्वारा मीमांसा कर ही देना चाहिए।
- केवलं शास्त्रं आश्रित्य न कर्तव्यो विनिर्णयः।
- युक्तिहीने विचारे तु धर्महानिः प्रजायते॥
- (केवल कानून की किताबों व पोथियों मात्र के अध्ययन के आधार पर निर्णय देना उचित नहीं होता। इसके लिए ‘युक्ति’ का सहारा लिया जाना चाहिए। युक्तिहीन विचार से तो धर्म की हानि होती है।)
- न्यायालय में मामला दाखिल होने से उसका फैसला होने तक की कार्य पद्धति इसमें विस्तार से दी गई है।
- इसमें प्राङ्न्याय का विवेचन है जो आधुनिक विधिशास्त्र में 'रेस ज्युडिकेटा' (Res Judicata) के समतुल्य है।[1][2] अतः कहा जा सकता है कि बृहस्पतिस्मृति में 'रेस ज्युडिकेटा' की संकल्पना का सबसे पहले वर्णन हुआ है।
- मृच्छकटिक नाटक के न्यायालयीन प्रसंग तथा कार्यपद्धति, इस स्मृति के अनुसार वर्णित है।
बृहस्पतिस्मृति का मनुस्मृति से निकट सम्बन्ध है। स्कन्दपुराण में किंवदन्ति है कि मूल मनुस्मृति के भृगु, नारद, बृहस्पति तथा अंगिरस ने चार विभाग किए। मनु ने जिन विषयों की संक्षिप्त चर्चा की, उसका बृहस्पति ने विस्तार से विवेचन किया। बृहस्पति और नारद में अनेक विषयों पर मतैक्य है परन्तु बृहस्पति की न्याय विषयक परिभाषाएँ नारद से अधिक अनिश्चयात्मक हैं। ‘मिताक्षरा’ व अन्य भाष्यों में इनके लगभग 700 श्लोक प्राप्त होते हैं, जो व्यवहार विषयक हैं। कौटिल्य ने बृहस्पति को प्राचीन अर्थशास्त्री के रूप में वर्णित किया है। ‘महाभारत’ के शान्तिपर्व में बृहस्पति को ब्रह्मा द्वारा रचित धर्म, अर्थ व काम विषयक ग्रन्थों को तीन सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त करने वाला कहा गया है। महाभारत के वनपर्व में ‘बृहस्पतिनीति’ का उल्लेख है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "Evolution of Law – A mark we missed!". मूल से 16 अप्रैल 2023 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 अप्रैल 2023.
- ↑ The Legal system in ancient India
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- बृहस्पतिस्मृतिः (संस्कृत विकिस्रोत)
- बृहस्पतिस्मृति (as reconstructed K. V. RANGASWAMI AITYANGAR)
- वार्हस्पत्य राज्यव्यवस्था (डॉ राघवेन्द्र वाजपेयी)
- बृहस्पतिस्मृतिः (नेपाली अर्थ सहित)