अकाल
अकाल भोजन का एक व्यापक अभाव है जो किसी भी पशुवर्गीय प्रजाति पर लागू हो सकता है। इस घटना के साथ या इसके बाद आम तौर पर क्षेत्रीय कुपोषण, भुखमरी, महामारी और मृत्यु दर में वृद्धि हो जाती है। जब किसी क्षेत्र में लम्बे समय तक (कई महीने या कई वर्ष तक) वर्षा कम होती है या नहीं होती है तो इसे सूखा या अकाल कहा जाता है। सूखे के कारण प्रभावित क्षेत्र की कृषि एवं वहाँ के पर्यावरण पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था डगमगा जाती है। इतिहास में कुछ अकाल बहुत ही कुख्यात रहे हैं जिसमें करोंड़ों लोगों की जाने गयीं हैं।
अकाल राहत के आपातकालीन उपायों में मुख्य रूप से क्षतिपूरक सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे कि विटामिन और खनिज पदार्थ देना शामिल है जिन्हें फोर्टीफाइड जैसे पाउडरों के माध्यम से या सीधे तौर पर पूरकों के जरिये दिया जाता है।[1][2] सहायता समूहों ने दाता देशों से खाद्य पदार्थ खरीदने की बजाय स्थानीय किसानों को भुगतान के लिए नगद राशि देना या भूखों को नगद वाउचर देने पर आधारित अकाल राहत मॉडल का प्रयोग करना शुरू कर दिया है क्योंकि दाता देश स्थानीय खाद्य पदार्थ बाजारों को नुकसान पहुंचाते हैं।[3]
लंबी अवधि के उपायों में शामिल हैं आधुनिक कृषि तकनीकों जैसे कि उर्वरक और सिंचाई में निवेश, जिसने विकसित दुनिया में भुखमरी को काफी हद तक मिटा दिया है।[4] विश्व बैंक की बाध्यताएं किसानों के लिए सरकारी अनुदानों को सीमित करते हैं और उर्वरकों के अधिक से अधिक उपयोग के अनापेक्षित परिणामों: जल आपूर्तियों और आवास पर प्रतिकूल प्रभावों के कारण कुछ पर्यावरण समूहों द्वारा इसका विरोध किया जाता है।[5][6]
अकाल के कारण
[संपादित करें]अकाल की परिभाषाएं तीन अलग-अलग श्रेणियों पर आधारित हैं - खाद्य आपूर्ति के आधार पर, भोजन की खपत के आधार पर और मृत्यु दर के आधार पर. अकाल की कुछ परिभाषाएं हैं:
- ब्लिक्स - खाद्य पदार्थों की व्यापक कमी जिसके कारण क्षेत्रीय मृत्यु दरों में उल्लेखनीय वृद्धि हो जाती है।[8]
- ब्राउन और एखोलम - खाद्य आपूर्ति में अचानक, तीव्रता से होने वाली कमी जिसके परिणाम स्वरूप व्यापक भुखमरी पैदा हो जाती है।[9]
- स्क्रिमशॉ - बड़ी संख्या में लोगों की भोजन की खपत के स्तर में अचानक गिरावट. [10]
- रैवेलियन - किसी आबादी के कुछ खंडों में भोजन ग्रहण करने पर असामान्य रूप से गंभीर खतरे के साथ असामान्य रूप से उच्च मृत्यु दर.[11]
- क्यूनी - परिस्थितियों का एक ऐसा सेट जो उस समय उत्पन्न होता है जब किसी क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोग पर्याप्त मात्रा में भोजन प्राप्त नहीं कर पाते हैं जिसके परिणाम स्वरूप एक बड़े पैमाने पर तीव्रता से कुपोषण फ़ैल जाता है।[12]
किसी आबादी में खाद्य पदार्थों की कमी या तो भोजन की कमी या फिर भोजन के वितरण में कठिनाइयों के कारण होता है; यह स्थिति प्राकृतिक जलवायु के उतार-चढ़ावों और दमनकारी सरकार या युद्ध से संबंधित चरम राजनीतिक परिस्थितियों के कारण और भी बदतर हो सकती है। आयरलैंड का भीषण अकाल आनुपातिक रूप से सबसे बड़े ऐतिहासिक अकालों में से एक था। इसकी शुरुआत 1845 में आलू की बीमारी की वजह से हुई थी और यह इसलिए भी हुआ क्योंकि खाद्य पदार्थों को आयरलैंड से इंग्लैंड भेजा जा रहा था। केवल अंग्रेज ही उच्च मूल्यों का भुगतान करने में सक्षम थे। हाल ही में इतिहासकारों ने अपने उन आकलनों को संशोधित किया है जिसके अनुसार यह बताया गया था कि अकाल को कम करने में अंग्रेजों द्वारा कितना अधिक नियंत्रण का प्रयास किया जा सकता था, इसमें यह पाया गया कि आम तौर पर जितना समझा जाता था उन्होंने उससे कहीं अधिक मदद करने की कोशिश की थी।[13] अकाल के कारण के लिए 1981 तक परंपरागत व्याख्या खाद्य पदार्थों की उपलब्धता में कमी (एफएडी) की परिकल्पना के रूप में थी। धारणा यह थी कि सभी अकालों की केंद्रीय वजह खाद्य पदार्थों की उपलब्धता में कमी थी।[14] हालांकि एफएडी यह नहीं समझा पाया कि क्यों आबादी का केवल एक ख़ास खंड जैसे कि खेतिहर मजदूर अकाल से प्रभावित थे जबकि अन्य अकाल से अछूते थे।[15] हाल ही के कुछ अकालों के अध्ययन के आधार पर एफएडी की निर्णायक भूमिका पर सवाल उठाया गया है और यह सुझाव दिया गया है कि जल्द से जल्द भुखमरी की स्थिति लाने का कारण बनने वाली प्रणालियों में सिर्फ खाद्य पदार्थों की उपलब्धता में कमी के अलावा भी कई अन्य कारक शामिल हैं। इस दृष्टिकोण के अनुसार, अकाल अधिकारों का एक परिणाम है, इस प्रस्तावित सिद्धांत को "आदान-प्रदान के अधिकारों की विफलता" या एफईई कहा जाता है।[15] किसी व्यक्ति के पास विभिन्न प्रकार की वस्तुएं हो सकती हैं जिनकी अदला-बदली एक बाजार व्यवस्था में उसकी जरूरत की अन्य चीजों के बदलें में की जा सकती है। आदान-प्रदान व्यापार या उत्पादन या दोनों के संयोजन के माध्यम से किया जा सकता है। इन अधिकारों को व्यापार-आधारित या उत्पादन-आधारित अधिकार कहा जाता है। इस प्रस्तावित दृष्टिकोण के अनुसार अकाल की स्थिति व्यक्ति द्वारा अपने अधिकारों के आदान-प्रदान की क्षमता ख़त्म हो जाने के कारण आती है।[15] एफईई के कारण होने वाले अकालों का एक उदाहरण किसी खेतिहर मजदूर द्वारा अपने प्रमुख अधिकारों का आदान-प्रदान करने की अक्षमता है, जैसे कि चावल का मजदूर जब उसके रोजगार की स्थिति डावांडोल या पूरी तरह से समाप्त हो जाती है।[15]
कुछ तत्त्व एक विशेष क्षेत्र को अकाल के लिए अत्यधिक संवेदनशील बना देते हैं। इनमें शामिल हैं:[16]
- गरीबी
- अनुपयुक्त भौतिक अवसंरचना
- अनुपयुक्त सामाजिक ढांचा
- एक दमनकारी राजनीतिक व्यवस्था
- एक कमजोर या पहले से तैयार नहीं रहने वाली सरकार
कुछ मामलों में, जैसे कि चीन में ग्रेट लीप फॉरवार्ड (जिसने पूर्ण संख्याओं में सबसे बड़ा अकाल पैदा किया था), 1990 के दशक के मध्य में उत्तर कोरिया में या सन 2000 की शुरुआत में जिम्बाब्वे में, अकाल की स्थिति सरकारी नीतियों के एक अनपेक्षित परिणाम के रूप में उत्पन्न हो सकती है। मलावी ने विश्व बैंक की बाध्यताओं के खिलाफ किसानों को अनुदान देकर अपने अकाल का खात्मा किया।[5] इथियोपिया में 1973 के वोल्लो अकाल के दौरान खाद्य पदार्थों को वोल्लो से बाहर राजधानी शहर अदीस अबाबा में भेजा जाता था जहां इनके लिए कहीं अधिक कीमतें मिल सकती थीं। 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध और 1980 के दशक की शुरुआत में इथियोपिया और सूडान की तानाशाहियों के निवासियों को भारी अकाल का सामना करना पड़ा, लेकिन जिम्बाब्वे और बोत्सवाना के लोकतंत्रों में राष्ट्रीय खाद्य उत्पादन में गंभीर कमी के बावजूद भी उन्होंने अपना बचाव किया। सोमालिया में अकाल एक विफल प्रशासन की वजह से आया।
कई अकाल बड़ी आबादी वाले देशों की तुलना में, जिनकी आबादी क्षेत्रीय वहन क्षमता से अधिक हो जाती है, खाद्य उत्पादन में असंतुलन के कारण पैदा होते हैं। ऐतिहासिक रूप से अकाल की स्थिति कृषि संबंधी समस्याओं जैसे कि सूखा, फसल की विफलता या महामारी की वजह से आयी है। मौसम के बदलते मिजाज, संकट, युद्ध और महामारी जनित बीमारियों जैसे कि काली मौत से निबटने में मध्य युगीन सरकारों की अप्रभावशीलता मध्य युगों के दौरान यूरोप में सैकड़ों अकालों को जन्म देने में सहायक सिद्ध हुई जिनमें ब्रिटेन में 95 और फ्रांस में 75 अकाल शामिल हैं।[17] फ्रांस में सौ सालों के युद्ध, फसल की विफलताओं और महामारियों ने इसकी आबादी दो-तिहाई तक कम कर दी थी।[18]
फसल कटाई की विफलता या परिस्थितियों में बदलाव जैसे कि सूखा एक ऐसी स्थिति पैदा कर सकता है जिसके द्वारा एक बड़ी संख्या में लोग निरंतर वहां रह सखते हैं जहां जमीन की वहन क्षमता में मूलतः अस्थायी रूप से कमी आ गयी है। अकाल को अक्सर निर्वाह के लायक कृषि के साथ जोड़ा जाता है। एक आर्थिक रूप से मजबूत क्षेत्र में कृषि का कुल अभाव अकाल का कारण नहीं बनता है; एरिज़ोना और अन्य समृद्ध क्षेत्र अपने खाद्य पदार्थ के बहुत अधिक हिस्से का आयात करते हैं, क्योंकि इस तरह के क्षेत्र व्यापार के लिए पर्याप्त आर्थिक सामग्रियों का उत्पादन करते हैं।
अकाल की स्थिति ज्वालामुखीय घटना के कारण भी उत्पन्न हुई है। 1885 में इंडोनेशिया में माउंट तंबोरा ज्वालामुखी में विस्फोट के कारण दुनिया भर में फसल नष्ट हो गए थे और अकाल की स्थितियां पैदा हो गयी थीं जिसके कारण 19वीं सदी का भीषण अकाल पड़ा था। वैज्ञानिक समुदाय की मौजूदा सर्वसम्मति यह है कि ऊपरी वायुमंडल में निकलने वाले एयरोसोल और धूलकण सूर्य की ऊर्जा को जमीन तक पहुंचने से रोककर तापमान को ठंडा कर देते हैं। यही प्रणाली सैद्धांतिक रूप से अत्यंत विशाल उल्का-पिंडों के कारण बड़े पैमाने पर विलुप्तियों की हद तक पड़ने वाले प्रभावों पर लागू होती है।
भविष्य में अकाल के खतरे
[संपादित करें]यह article पुरानी जानकारी होने के कारण तथ्यात्मक रूप से सटीक नहीं है। कृपया इसका अद्यतन कर इसे बेहतर बनाने में मदद करें। अधिक जानकारी वार्ता पृष्ठ पर पाई जा सकती है। (December 2010) |
गार्जियन की रिपोर्ट है कि 2007 में दुनिया की लगभग 40% कृषि योग्य भूमि का स्तर गंभीर रूप से गिर गया है।[19] यूएनयू के घाना-स्थित इंस्टिट्यूट फॉर नेचुरल रिसोर्सेस इन अफ्रीका के अनुसार, अगर अफ्रीका में मिट्टी के स्तर में गिरावट के मौजूदा रुझान जारी रहे तो यह महाद्वीप 2025 तक अपनी आबादी के सिर्फ 25% हिस्से को भोजन प्रदान करने में सक्षम होगा। [20] 2007 के उत्तरार्द्ध तक जैव ईंधन[21] में इस्तेमाल के लिए होने वाली खेती में वृद्धि के साथ-साथ दुनिया में तेल की कीमतों के तकरीबन 100 डॉलर प्रति बैरल[22] पर पहुंच जाने के कारण मुर्गियों और डेयरी के गायों तथा अन्य पशुओं को खिलाने वाले खाद्यान्नों की कीमतें काफी बढ़ गयी थीं, इसी वजह से गेहूं (58% अधिक), सोयाबीन (32% अधिक) और मक्के (11% अधिक) की कीमतों में वर्ष भर में काफी बढ़त देखी गयी।[23][24] सन 2007 में दुनिया भर के कई देशों में खाद्य दंगे होते देखे गए।[25][26][27] स्टेम रस्ट की एक महामारी जो गेहूं के लिए विनाशकारी होती है और Ug99 प्रजाति के कारण पैदा होती है, 2007 में यह संपूर्ण अफ्रीका और एशिया में फ़ैल गयी थी।[28][29]
20वीं सदी की शुरुआत में आंशिक रूप से अकाल से निपटने के क्रम में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए नाइट्रोजन उर्वरकों, नए कीटनाशकों, रेगिस्तानी कृषि और अन्य कृषि प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल होना शुरु हो गया था। 1950 और 1984 के बीच जब हरित क्रांति ने कृषि को प्रभावित किया, विश्व खाद्यान्न उत्पादन में 250% की वृद्धि हुई। इस बढ़त का ज्यादातर हिस्सा गैर-टिकाऊ है। इन कृषि प्रौद्योगिकियों ने फसल की पैदावार को अस्थायी रूप से बढ़ा दिया था, लेकिन कम से कम 1995 तक इस बात के संकेत मिल गए थे कि ये कृषि योग्य भूमि की कमी का कारण बन सकते थे (जैसे कि कीटनाशकों की दृढ़ता जो मिट्टी का संदूषण बढ़ाती है और खेती के लिए उपलब्ध क्षेत्र को कम कर देती है). विकसित देशों ने अकाल की समस्या वाले विकासशील देशों के साथ इन प्रौद्योगिकियों की साझेदारी की है, लेकिन अपेक्षाकृत कम विकसित देशों में इन प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देने के लिए नैतिक सीमाएं मौजूद हैं। इसके लिए अक्सर अकार्बनिक उर्वरकों और स्थिरता की कमी वाले कीटनाशकों के एक संयोजन को जिम्मेदार ठहराया जाता है।
कॉर्नेल विश्वविद्यालय में पारिस्थितिकी और कृषि के प्रोफ़ेसर, डेविड पिमेंटेल और नेशनल रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑन फ़ूड एंड न्यूट्रीशन (आईएनआरएएन) में वरिष्ठ शोधकर्ता, मारियो गियामपिएत्रो अपने अध्ययन फ़ूड, लैंड, पॉपुलेशन एंड द यूएस इकोनोमी में एक चिरस्थायी अर्थव्यवस्था के लिए अमेरिका की अधिकतम जनसंख्या 200 मिलियन पर रखते हैं।[30] अध्ययन कहता है कि एक चिरस्थायी अर्थव्यवस्था को प्राप्त करने और आपदा से बचने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका को अपनी आबादी कम से कम एक-तिहाई कम करनी होगी और दुनिया की आबादी को दो-तिहाई तक कम करना होगा। [31] इस अध्ययन के लेखकों का मानना है कि उल्लिखित कृषि संकट केवल 2020 के बाद हमें प्रभावित करना शुरू कर देगा और 2050 तक यह संकटपूर्ण नहीं होगा। आगामी वैश्विक तेल उत्पादन के चोटी पर पहुंचने (और इसके बाद उत्पादन में गिरावट) के साथ-साथ उत्तर अमेरिकी प्राकृतिक गैस उत्पादन के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने से इस कृषि संकट को अपेक्षा से कहीं अधिक जल्दी ला देने की संभावना काफी बढ़ जाएगी.
भूविज्ञानी डेल एलन फीफर का दावा है कि आने वाले दशकों में खाद्य पदार्थों की कीमतों में किसी राहत के बिना उत्तरोत्तर वृद्धि और वैश्विक स्तर पर ऐसी भारी भुखमरी देखी जा सकती है जिसका अनुभव पहले कभी नहीं किया गया है।[32] पानी की कमी की समस्या जो अनेक छोटे देशों में खाद्यान्नों के भारी आयात को पहले से बढ़ावा दे रही है, यह जल्दी ही बड़े देशों जैसे कि चीन या भारत में भी यही स्थिति ला सकती है।[33] शक्तिशाली डीजल और बिजली के पम्पों के व्यापक अति-उपयोग के कारण अनेक देशों (उत्तरी चीन, अमेरिका और भारत सहित) में जल स्तर घटता जा रहा है। पाकिस्तान, ईरान और मेक्सिको अन्य प्रभावित देशों में शामिल हैं। यह अंततः पानी की कमी और अनाज फसल में कटौती करने का कारण बनेगा. यहाँ तक कि अपने जलवाही स्तरों की अत्यधिक पम्पिंग के साथ चीन ने एक अनाज घाटा विकसित किया है जो अनाज की कीमतों पर दबाव बढाने में योगदान करता है। इस सदी के मध्य तक दुनिया भर में पैदा होने वाले तीन बिलियन लोगों में से अधिकांश के ऐसे देशों में जन्म लेने की संभावना है जो पहले से ही पानी की कमी का सामना कर रही है।
चीन और भारत के बाद पानी की भारी कमी से जूझते दूसरी श्रेणी के अपेक्षाकृत छोटे देशों में शामिल हैं -- अल्जीरिया, मिस्र, इरान, मेक्सिको और पाकिस्तान. इनमे से चार देश अपने लिए अनाज के एक बड़े हिस्से का आयात पहले से ही किया करते हैं। सिर्फ पाकिस्तान आंशिक रूप से आत्मनिर्भर बना हुआ है। लेकिन हर साल 4 मिलियन की बढ़ती आबादी के कारण इसे भी जल्द ही अनाज के लिए विश्व बाज़ार का रुख करना पड़ेगा.[34][35] संयुक्त राष्ट्र की जलवायु रिपोर्ट के अनुसार हिमालय के हिमनद जो एशिया की सबसे बड़ी नदियों - गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, यांग्जे, मेकांग, सलवीन और येलो के लिए शुष्क-मौसम के प्रमुख जल स्रोत हैं, ये तापमान में वृद्धि और मानवीय मांग बढ़ने के कारण 2035 तक गायब हो सकते हैं।[36] बाद में यह पता चला कि संयुक्त राष्ट्र संघ की जलवायु रिपोर्ट में इस्तेमाल किये गये स्रोत में दरअसल 2035 नहीं बल्कि 2350 कहा गया है।[37] हिमालयी नदियों के जलनिकास मार्ग के आसपास की भूमि में लगभग 2.4 बिलियन लोग रहते हैं।[38] भारत, चीन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार को आने वाले दशकों में गंभीर सूखे के बाद बाढ़ का सामना करना पड़ सकता है।[39] सिर्फ भारत में ही गंगा नदी 500 मिलियन से अधिक लोगों को पेयजल और खेती के लिए पानी उपलब्ध कराती है।[40][41]
अकाल के लक्षण
[संपादित करें]अकाल उप-सहाराई अफ्रीकी देशों को सबसे अधिक बुरी तरह से प्रभावित करता है लेकिन खाद्य संसाधनों की अत्यधिक खपत, भूजल की अत्यधिक निकासी, युद्ध, आंतरिक संघर्ष और आर्थिक विफलता के साथ अकाल दुनिया भर के लिए एक समस्या बनी हुई है जिसका सामना सैकड़ों लाख लोगों को करना पड़ता है।[42] इस तरह के अकाल बड़े पैमाने पर कुपोषण और दरिद्रता का कारण बनते हैं; 1980 के दशक में इथियोपिया के अकाल में मरने वालों की संख्या अत्यधिक थी, हालांकि 20वीं सदी के एशियाई अकालों में भी व्यापक स्तर पर लोगों की मौतें हुई थीं। आधुनिक अफ्रीकी अकालों की पहचान व्यापक स्तर के अभाव और कुपोषण के साथ विशेष कर छोटे बच्चों की मृत्यु दर में वृद्धि से होती है।
प्रतिरक्षण सहित राहत की प्रौद्योगिकियों ने जन स्वास्थ्य अवसंरचना, सामान्य खाद्य राशन और कमजोर बच्चों के लिए पूरक भोजन की व्यवस्था में सुधार किया है, इससे अकालों के मृत्यु दर संबंधी प्रभावों में अस्थायी रूप से कमी आयी है, जबकि उनके आर्थिक परिणामों को अपरिवर्तित छोड़ दिया गया है और खाद्य उत्पादन क्षमता के सापेक्ष एक क्षेत्रीय जनसंख्या के एक बहुत बड़े अंतर्निहित मुद्दे को हल नहीं किया गया है। मानवीय संकट भी नरसंहार अभियानों, गृह युद्धों, शरणार्थियों के प्रवाह और चरम हिंसा तथा साम्राज्य के पतन के प्रकरणों से उत्पन्न होते हैं जिससे प्रभावित आबादी के बीच अकाल की स्थिति पैदा हो जाती है।
भुखमरी और अकाल का खात्मा करने के लिए दुनिया के नेताओं द्वारा बार-बार दोहराए गए कथित इरादों के बावजूद अकाल अफ्रीका और एशिया के ज्यादातर भागों में एक चिरकालिक खतरा बना हुआ है। जुलाई 2005 में फैमिन अर्ली वार्निंग सिस्टम्स नेटवर्क ने नाइजीरिया के साथ-साथ चाड, इथियोपिया, दक्षिण सूडान, सोमालिया और जिम्बाब्वे को आपात स्थिति का लेबल दिया था। जनवरी 2006 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने चेतावनी दी कि गंभीर सूखे और सैन्य संघर्ष के संयुक्त प्रभाव के कारण सोमालिया, केन्या, जिबूती और इथियोपिया में 11 मिलियन लोग भुखमरी के कगार पर थे। [2] 2006 में अफ्रीका में सबसे गंभीर मानवीय संकट सूडान के दारफुर क्षेत्र में था।
कुछ लोगों का मानना था कि हरित क्रांति 1970 और 1980 के दशक में अकाल का एक उपयुक्त जवाब था। हरित क्रांति की शुरुआत 20वीं सदी में अधिक-उपज वाले फसलों के संकर किस्मों के साथ हुई थी। 1950 और 1984 के बीच जब हरित क्रांति ने दुनिया भर में कृषि का नक्शा बदल दिया, विश्व अनाज उत्पादन में 250% की वृद्धि हुई। [43] कुछ लोग इस प्रक्रिया की आलोचना करते हुए कहते हैं कि इन नए उच्च-उपज वाले फसलों के लिए अधिक रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की आवश्यकता होती है जो वातावरण को नुकसान पहुंचा सकते हैं। हालांकि अकाल से पीड़ित विकासशील देशों के लिए यह एक विकल्प था। ये अधिक-उपज वाले फसल तकनीकी रूप से अधिक लोगों को भोजन प्रदान करना संभव बनाते हैं। हालांकि इस बात के संकेत मिले हैं कि व्यापक स्तर की कृषि के साथ जुड़ी कुछ विशेष नीतिओं जैसे कि भूजल के अत्यधिक दोहन और कीटनाशकों तथा अन्य कृषि रसायनों के अत्यधिक प्रयोग के कारण दुनिया के कई क्षेत्रों में क्षेत्रीय खाद्य उत्पादन चोटी पर पहुंच गया है।
फ्रांसिस मूर लैपे जो बाद में इंस्टिट्यूट फॉर फ़ूड एंड डेवलपमेंट पॉलिसी (फ़ूड फर्स्ट) के सह-संस्थापक बने, उन्होंने डाइट फॉर ए स्मॉल प्लानेट (1971) में यह तर्क दिया कि शाकाहारी आहार मांसाहारी आहारों की तुलना में उन्हीं संसाधनों के साथ एक बड़ी आबादी के लिए भोजन प्रदान कर सकते हैं।
ध्यान देने योग्य बात है कि आधुनिक अकालों की स्थिति को कभी-कभी गुमराह आर्थिक नीतियों, कुछ ख़ास आबादी को निर्धन बनाए या हाशिये में रखने के लिए बनाए गए राजनीतिक डिजाइन या युद्ध के कृत्यों द्वारा बिगाड़ दिया जाता है, राजनीतिक अर्थशास्त्रियों ने उन राजनीतिक परिस्थितियों की जांच की है जिसके तहत अकाल को रोका जा सकता है। अमर्त्य सेन [note 1] कहते हैं कि भारत में मौजूद उदारवादी संस्थाओं के साथ-साथ प्रतिस्पर्धी चुनाव और एक मुक्त प्रेस ने आजादी के बाद से देश में अकाल को रोकने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। एलेक्स डी वाल ने शासकों और जनता के बीच "राजनीतिक अनुबंध" पर ध्यान केंद्रित करने के लिए यह सिद्धांत विकसित किया है जो अकाल को रोकना सुनिश्चित करता है, जिसमें यह उल्लेख किया गया है कि अफ्रीका में ऐसे राजनीतिक अनुबंधों की दुर्लभता और यह खतरा कि अंतरराष्ट्रीय राहत एजेंसियां राष्ट्रीय सरकारों से अकालों के लिए जवाबदेही की स्थिति को हटाकर उन अनुबंधों को कमजोर कर देंगी।
अकाल के प्रभाव
[संपादित करें]अकाल के जनसांख्यिकीय प्रभाव तीक्ष्ण होते हैं। मृत्यु दर बच्चों और बुजुर्गों के बीच केंद्रित रहती है। एक सुसंगत जनसांख्यिकीय तथ्य यह है कि दर्ज किये गए सभी अकालों में पुरुष मृत्यु दर महिला से अधिक होती है, यहाँ तक कि उन आबादियों में भी (जैसे कि उत्तरी भारत और पाकिस्तान) जहां पुरुष को सामान्य रूप से लंबी उम्र का लाभ मिलता है। इसके कारणों में कुपोषण के दबाव में अधिक से अधिक महिला लचीलापन और संभवतः महिलाओं के शरीर में वसा की स्वाभाविक रूप से उच्च प्रतिशत को शामिल किया जा सकता है। अकाल के साथ-साथ प्रजनन क्षमता भी कम हो जाती है। इसलिए अकाल किसी आबादी के प्रजनन के कोर - वयस्क महिलाओं - को आबादी की अन्य श्रेणियों की तुलना में कम प्रभावित करते हैं और अकाल के बाद की अवधियों की पहचान अक्सर बढ़ी हुई जन्म दर के साथ "पूर्वस्थिति" में आने के रूप में होती है। इसके बावजूद कि थॉमस माल्थस के सिद्धांत यह भविष्यवाणी करते हैं कि अकाल उपलब्ध खाद्य संसाधनों के अनुरूप आबादी के आकार को कम कर देते हैं, वास्तव में यहाँ तक कि सबसे गंभीर अकालों ने भी कुछ सालों से अधिक के लिए आबादी के विकास को शायद ही कभी कमजोर किया है। 1958-61 में चीन में, 1943 में बंगाल में और 1983-1985 में इथियोपिया में मृत्यु दर को एक बढ़ती हुई आबादी द्वारा सिर्फ कुछ ही वर्षों में पूर्वस्थिति में ला दिया था। अधिक से अधिक लंबी-अवधि का जनसांख्यिकीय प्रभाव है उत्प्रवास: 1840 के दशक के अकाल के बाद मुख्य रूप से आयरलैंड की आबादी उत्प्रवास की लहर के कारण काफी कम हो गयी थी।
खाद्य असुरक्षा के स्तर
[संपादित करें]आधुनिक समय में स्थानीय और राजनीतिक सरकार तथा गैर-सरकारी संगठन जो अकाल राहत प्रदान करते हैं उनके पास सीमित संसाधन मौजूद होते हैं जिनके जरिये उन्हें एक साथ उत्पन्न होने वाली खाद्य असुरक्षा की विभिन्न स्थितियों से निबटना पड़ता है। इस प्रकार खाद्य राहत सामग्री के सबसे प्रभावशाली ढंग से आवंटन के क्रम में खाद्य सुरक्षा के वर्गीकरण को श्रेणीबद्ध करने के विभिन्न विधियों का इस्तेमाल किया जाता है। इनमें से एक सबसे प्रारंभिक विधि 1880 के दशक में अंग्रेजों द्वारा तैयार की गयी भारतीय अकाल संहिता है। संहिताओं में खाद्य असुरक्षा के तीन चरणों को सूचीबद्ध किया गया था: लगभग-तंगी, अभाव और अकाल, इसके अलावा ये बाद में अकाल की चेतावनी या मापन प्रणालियों के निर्माण में अत्यंत प्रभावशाली रहे थे। उत्तरी केन्या में तुर्काना लोगों के आवासीय क्षेत्रों की निगरानी के लिए विकसित पूर्व चेतावनी प्रणाली में भी तीन स्तर हैं, लेकिन प्रत्येक चरण का संबंध संकट को कम करने और इसे कमजोर करने की एक पूर्व-निर्धारित प्रतिक्रिया से जुड़ा हुआ है।
1980 और 1990 के दशक में दुनिया भर में अकाल राहत संगठनों के अनुभव के परिणाम स्वरूप कम से कम दो प्रमुख गतिविधियां सामने आयीं: "आजीविका का दृष्टिकोण" और किसी संकट की गंभीरता के निर्धारण के लिए पोषण संकेतकों का अधिक से अधिक इस्तेमाल. खाद्य सामग्री की तनावपूर्ण स्थितियों में व्यक्तियों और समूहों द्वारा खपत की पूर्ति सीमित कर इसका सामना करने का प्रयास किया जाएगा जो कृषि योग्य भूमि के भूखंडों को बेचने जैसे निराशाजनक उपायों को आजमाने से पहले पूरक आय आदि के वैकल्पिक माध्यम हो सकते हैं। जब स्वयं-सहायता के सभी माध्यमों का उपयोग कर लिया जाता है, तब प्रभावित आबादी भोजन की खोज में पलायन करने लगती है या पूर्ण रूप से व्यापक भुखमरी का शिकार बन जाती है। इस प्रकार अकाल को आंशिक रूप से एक सामाजिक घटना के रूप में देखा जा सकता है जिसमें बाजार, खाद्य सामग्रियों की कीमतें और सामाजिक सहायता संरचनाएं शामिल होती हैं। एक दूसरा तैयार किया गया सबक था अकाल की गंभीरता का एक मात्रात्मक मापन प्रदान करने के लिए विशेष रूप से बच्चों में तीव्र पोषण आकलनों का अधिक से अधिक उपयोग.
2004 के बाद से अकाल राहत में संलग्न कई सबसे महत्वपूर्ण संगठन जैसे कि विश्व खाद्य कार्यक्रम और अंतरराष्ट्रीय विकास की अमेरिकी एजेंसी ने तीव्रता और परिमाण को मापने के लिए एक पंच-स्तरीय पैमाने को अपनाया है। तीव्रता का पैमाना किसी भी परिस्थिति को खाद्य सुरक्षित, खाद्य असुरक्षित, खाद्य संकट, अकाल, गंभीर अकाल और चरम अकाल के रूप में वर्गीकृत करने के लिए आजीविका के उपायों और मृत्यु दर तथा बाल कुपोषण की माप दोनों का इस्तेमाल करता है। मौतों की संख्या परिमाण के नाम का निर्धारण करती है जिसमें 1000 से कम हताहतों की संख्या एक "मामूली अकाल" को परिभाषित करती है और एक "भयावह अकाल" का नतीजा 1,000,000 से अधिक लोगों की मौतों के रूप में सामने आता है।
अकाल की कार्यवाही
[संपादित करें]अकाल निवारण
[संपादित करें]पश्चिम में पायी जाने वाली आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकियों जैसे कि नाइट्रोजन उर्वरकों और कीटनाशकों को एशिया में लाने के प्रयासों को हरित क्रांति कहा गया जिसके परिणाम स्वरूप कुपोषण में उसी तरह की कमी आयी जैसा कि पहले पश्चिमी देशों में देखा गया था। यह मौजूदा बुनियादी ढांचे और संस्थाओं की वजह से संभव हुआ था जिनकी आपूर्ति अफ्रीका में काफी कम है जैसे कि सड़कों या सार्वजनिक बीज कंपनियों की एक प्रणाली जो बीजों को उपलब्ध कराती है।[45] खाद्य असुरक्षा वाले क्षेत्रों में मुफ्त या अनुदानिक उर्वरकों तथा बीजों को उपलब्ध कराने जैसे उपायों के जरिये किसानों की सहायता करने से फसल कटाई में वृद्धि होती है और खाद्य पदार्थों की कीमतें कम होती हैं।[5][46]
विश्व बैंक और कुछ धनी देश उन देशों पर दबाव डालते हैं जो निजीकरण के नाम पर रियायती कृषि सामग्रियों जैसे कि उर्वरक में कटौती करने या इसे ख़त्म करने के क्रम में सहायता प्राप्त करने के लिए उन पर निर्भर करते हैं, इसके बावजूद कि संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप ने अपने स्वयं के किसानों को व्यापक रूप से रियायत दी है।[5][47] अगर ज्यादातर नहीं तो कई किसान इतने गरीब होते हैं कि वे बाजार के मूल्यों पर उर्वरकों को खरीदने की स्थिति में नहीं होते हैं।[5] उदाहरण के लिए, मलावी के मामले में इसकी 13 मिलियन आबादी में से लगभग पांच मिलियन लोगों को निरंतर आपातकालीन खाद्य सहायता की जरूरत पड़ती है। हालांकि सरकार द्वारा अपनी नीति को बदलने और उर्वरक तथा बीज के लिए रियायतें देने के बाद किसानों ने 2006 और 2007 में रिकॉर्ड-तोड़ मक्के की फसल का उत्पादन किया जिससे उत्पादन 2005 में 1.2 मिलियन की तुलना में बढ़कर 2007 में 3.4 मिलियन हो गया। [5] इससे खाद्य सामग्री की कीमतें कम हो गयीं और कृषि श्रमिकों का पारिश्रमिक बढ़ गया। [5] मलावी खाद्य पदार्थों का एक प्रमुख निर्यातक बन गया जो दक्षिणी अफ्रीका के किसी भी अन्य देश की तुलना में विश्व खाद्य कार्यक्रम और संयुक्त राष्ट्र को सर्वाधिक मक्के की बिक्री करने लगा। [5] किसानों की मदद के प्रस्तावकों में अर्थशास्त्री जेफ्री सैक्स भी शामिल हैं जिन्होंने इस विचार का समर्थन किया है कि धनी राष्ट्रों को अफ्रीका के किसानों के लिए खाद और बीजों पर निवेश करना चाहिए। [5]
अकाल राहत
[संपादित करें]सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी की व्यवस्था सुदृढ़ खाद्य पदार्थों के माध्यम से की जा सकती है।[48] सुदृढ़ खाद्य पदार्थों जैसे कि मूंगफली मक्खन के पाउच (प्लम्पी 'नट को देखें) और स्पाइरूलीना ने मानवीय आपातकाल की स्थितियों में आपातकालीन भोजन की व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है क्योंकि इन्हें पैकेटों से सीधे खाया जा सकता है, इनके लिए पैकेट प्रशीतन या दुर्लभ स्वच्छ पानी के साथ सम्मिश्रण की आवश्यकता नहीं होती है, इन्हें वर्षों तक भंडारित किया जा सकता है और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इन्हें अत्यंत गंभीर रूप से बीमार बच्चों को भी दिया जा सकता है।[1] संयुक्त राष्ट्र के 1974 के विश्व खाद्य सम्मेलन में स्पाइरूलीना को 'भविष्य के लिए सबसे अच्छा भोजन' घोषित किया गया था और इसकी प्रत्येक 24 घंटे में तैयार होने वाली फसल इसे कुपोषण को मिटाने के लिए एक शक्तिशाली साधन बनाती है। इसके अलावा बच्चों में दस्त के इलाज के लिए पूरक चीजों जैसे कि विटामिन ए के कैप्सूल या जिंक की गोलियों का इस्तेमाल किया जाता है।[2]
सहायता समूहों के बीच एक बढ़ती समझ यह है कि भूखों को सहायता प्रदान करने के लिए खाद्य सामग्री की बजाय नगदी या नगदी वाउचर देना एक किफायती, तेज और अधिक प्रभावी तरीका है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहां खाद्य सामग्री उपलब्ध होती है लेकिन इसे खरीद पाना संभव नहीं होता है।[3] 'संयुक्त राष्ट्र का विश्व खाद्य कार्यक्रम जो खाद्य सामग्री का सबसे बड़ा गैर-सरकारी वितरक है, इसने घोषणा की थी कि यह कुछ क्षेत्रों में खाद्य सामग्री की बजाय नगदी और वाउचरों का वितरण करना शुरू करेगा जिसे डब्ल्यूएफपी के कार्यकारी निदेशक जोसेट शीरन ने खाद्य सहायता के क्षेत्र में एक "क्रांति" बताया। [3][49] सहायता एजेंसी कन्सर्न वर्ल्डवाइड एक मोबाइल फोन ऑपरेटर, सफारीकॉम के माध्यम से एक विधि का प्रायोगिक अध्ययन कर रही है, सफारीकॉम एक धनराशि हस्तांतरण कार्यक्रम का संचालन करती है जिसके जरिये देश के एक भाग से दूसरे भाग तक नगदी भेजने की सुविधा प्रदान की जाती है।[3]
हालांकि एक सूखे की स्थिति में काफी दूर रहने वाले और बाजारों तक सीमित पहुंच रखने वाले लोगों के लिए खाद्य सामग्री प्रदान करना सहायता पहुंचाने का एक सबसे उपयुक्त तरीका हो सकता है।[3] फ्रेड क्यूनी ने कहा था कि किसी राहत ऑपरेशन की शुरुआत में जिंदगियां बचाने के मौके उस स्थिति में काफी कम हो जाते हैं जब खाद्य सामग्री का आयात किया जाता है। जब तक यह देश में आता है और लोगों तक पहुंचता है, कई लोग मौत के शिकार हो चुके होते हैं।"[50] अमेरिकी कानून जिसके लिए आवश्यकता यह है कि खाद्य सामग्री भूखों के रहने के स्थान की बजाय अपने देश से खरीदी जाए, यह अप्रभावशाली है क्योंकि जो राशि खर्च की जाती है उसका लगभग आधा हिस्सा परिवहन में चला जाता है।[51] फ्रेड क्यूनी ने आगे ध्यान दिलाया कि "हाल के प्रत्येक अकाल के अध्ययन से पता चला है कि खाद्य सामग्री देश में ही उपलब्ध थी - हालांकि यह हमेशा खाद्य सामग्री की कमी वाले निकटवर्ती क्षेत्र में नहीं होता है" और "इसके बावजूद कि स्थानीय मानकों के अनुसार कीमतें इतनी अधिक होती हैं कि गरीब लोग इसे खरीद नहीं सकते, आम तौर पर किसी दाता के लिए संचित खाद्य सामग्री को विदेश से आयात करने की बजाय बढ़ी हुई दरों में खरीदना कहीं अधिक किफायती होगा."[52]
इथियोपिया एक ऐसे कार्यक्रम को बढ़ावा दे रहा है जो अब खाद्य संकट का सामना करने के लिए विश्व बैंक के निर्धारित नुस्खे का एक हिस्सा बन गया है और सहायता संगठनों द्वारा इसे भूखे राष्ट्रों की सबसे अच्छी तरह से सहायता करने के एक मॉडल के रूप में देखा जाने लगा था। देश के मुख्य खाद्य सहायता कार्यक्रम, प्रोडक्टिव सेफ्टी नेट प्रोग्राम के माध्यम से इथियोपिया उन ग्रामीण निवासियों को भोजन या नगदी के लिए काम करने का एक मौक़ा प्रदान करता है जो लंबे समय से भोजन की कमी की समस्या से जूझ रहे हैं। विदेशी सहायता संगठन जैसे कि वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम उस समय खाद्य पदार्थों की कमी वाले क्षेत्रों में वितरण के लिए आवश्यकता से अधिक खाद्यान्न वाले क्षेत्रों से स्थानीय रूप से खाद्य पदार्थ खरीदने में सक्षम थे।[53]
ऐतिहासिक अकाल, क्षेत्र के अनुसार
[संपादित करें]20वीं सदी के दौरान एक अनुमान के मुताबित 70 मिलियन लोग दुनिया भर में अकाल की वजह से मारे गए थे जिनमें से अनुमान के मुताबिक़ 30 मिलियन लोगों की मौत चीन में 1958-61 के अकाल के दौरान हो गई थी।[उद्धरण चाहिए] सदी के अन्य सबसे उल्लेखनीय अकालों में बंगाल में 1942-1945 की आपदा, 1928 और 1942 में चीन के अकाल, सोवियत संघ में अकालों की एक श्रृंखला के साथ-साथ 1932-1933 का सोवियत का अकाल, 1932-33 में यूएसएसआर पर लगाया गया स्टालिन का अकाल शामिल है। 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुए कुछ भीषण अकाल थे: 1960 के दशक में बाइफ्रान का अकाल, 1970 के दशक में कंबोडिया का अकाल, इथियोपिया का 1984-85 का अकाल और उत्तर कोरिया का 1990 के दशक का अकाल.
अफ्रीका में अकाल
[संपादित करें]22वीं सदी ई.पू. के मध्य में एक अचानक और अल्पकालिक जलवायु परिवर्तन हुआ जो कम वर्षा का कारण बना जिसके परिणाम स्वरूप ऊपरी मिस्र में कई दशकों तक सूखा पड़ा रहा। माना जाता है कि परिणामी अकाल और नागरिक संघर्ष पुराने साम्राज्यों के पतन का एक प्रमुख कारण रहा है। फर्स्ट इंटरमीडिएट पीरियड का एक विवरण कहता है, "संपूर्ण ऊपरी मिस्र में भूख की वजह से मौतें हो रही थीं और लोग अपने बच्चों को खा रहे थे।" 1680 के दशक में अकाल का विस्तार संपूर्ण सहेल में हो गया था और 1738 में टिम्बकटू की आधी आबादी अकाल मृत्यु का शिकार हो गई थी।[54] मिस्र को 1687 और 1731 के बीच छः अकालों का सामना करना करना पड़ा था।[55] वह अकाल जिसने 1784 में मिस्र को विपदा में डाला उसमें इसकी लगभग छठे हिस्से की आबादी को अपनी जान गंवानी पड़ी.[56] 18वीं सदी के अंत में[57] और इससे भी अधिक उन्नीसवीं की शुरुआत में मग़रेब को प्लेग और अकाल के संयुक्त रूप से घातक खतरे का सामना करना पड़ा.[58] त्रिपोली और ट्यूनिस ने क्रमशः 1784 और 1785 में अकाल का सामना किया।[59]
जॉन इलिफे के अनुसार, "16वीं सदी के अंगोला के पुर्तगाली अभिलेख दर्शाते हैं कि एक औसतन हर सत्तर साल के बाद एक भीषण अकाल पड़ा है; जिसके साथ-साथ महामारी के रोग की वजह से इसकी एक तिहाई या आधी आबादी काल के गाल में समा गयी होगी जिससे एक पीढ़ी का जनसांख्यिकीय विकास नष्ट हो गया और उपनिवेशवादियों को वापस नदी घाटियों की और रुख करने के लिए मजबूर होना पड़ा."[60]
अफ्रीकी अकाल के इतिहासकारों ने इथियोपिया में बार-बार हुए अकाल को प्रलेखित किया है। संभवतः सबसे बुरी स्थितियां 1888 और उसके बाद के वर्षों में उत्पन्न हुई थीं क्योंकि इरिट्रिया में संक्रमित पशुओं द्वारा फैलाया गया एपिज़ोओटिक रिंडरपेस्ट दक्षिण दिशा की ओर फ़ैलाने लगा और अंततः दूर दक्षिण अफ्रीका तक पहुंच गया। इथियोपिया में यह अनुमान लगाया गया था कि देश के पशुओं के झुंड में अधिक से अधिक 90 प्रतिशत की मौत हो गई थी जिससे समृद्ध किसान और चरवाहे रातोंरात बेसहारा हो गए थे। इसके अलावा सूखे के साथ-साथ अल नीनो दोलन, चेचक की मानवीय महामारी और कई देशों में जबरदस्त युद्ध की घटनाएं एक साथ घटित हुईं. इथियोपिया का भीषण अकाल जिसने 1888 से 1,892 तक इथियोपिया को सताया था इसमें मोटे तौर पर इसे अपनी एक-तिहाई आबादी की जान गंवानी पड़ी थी।[61] सूडान में इन पहलुओं और महदिस्ट शासन द्वारा लगाये गए अपकर्षणों के मामले में वर्ष 1888 को इतिहास के सबसे भीषण अकाल के रूप में याद किया जाता है। औपनिवेशिक "शान्ति स्थापन" के प्रयास अक्सर गंभीर अकाल का कारण बनते हैं, उदाहरण के लिए जैसा कि 1906 में तंगन्यिका में माजी माजी विद्रोह के दमन के साथ हुआ था। कपास जैसी नकदी फसलों की शुरुआत और इन फसलों को उगाने के लिए किसानों पर दबाव डालने के जबरन प्रयासों ने भी उत्तरी नाइजीरिया जैसे कई क्षेत्रों में किसानों को गरीब बना दिया जिसके कारण 1913 में गंभीर सूखे का सामना होने पर अकाल की स्थिति उत्पन्न होने की संभावना अधिक से अधिक हो गयी थी। हालांकि 20वीं सदी के मध्य भाग के लिए कृषकों, अर्थशास्त्रियों और भूगोलविदों ने अफ्रीका को अकाल के प्रति संवेदनशील नहीं माना था (वे एशिया को लेकर कहीं अधिक चिंतित थे).[उद्धरण चाहिए] इसके कई उल्लेखनीय जवाबी-उदाहरण थे जैसे कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रवांडा का अकाल और 1949 का मलावी का अकाल, लेकिन ज्यादातर अकाल स्थानीयकृत और अल्पकालिक खाद्य पदार्थों की कमी की समस्या से ग्रस्त थे। अकाल की काली छाया सिर्फ 1970 के दशक की शुरुआत में फिर से पड़ी जब इथियोपिया और पश्चिम अफ्रीकी सहेल को सूखे और अकाल का सामना करना पड़ा. उस समय का इथियोपिया का अकाल इस देश में सामंतवाद के संकट के साथ बारीकी से जुड़ा हुआ था और उसी दौरान यह सम्राट हैले सेलास्सी के पतन का कारण बनने में सहायक सिद्ध हुआ। सहेलियाई अकाल अफ्रीका में चारागाहों के धीरे-धीरे बढ़ रहे संकट के साथ जुड़ा हुआ था जिसमें पिछली दो पीढ़ियों में जीवन यापन के एक व्यावहारिक मार्ग के रूप में पशुपालन में कमी देखी गयी थी।
तब से अफ्रीकी अकाल कहीं अधिक निरंतर, अधिक व्यापक और अधिक गंभीर हो गए हैं। कई अफ्रीकी देश खाद्य उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हैं जो खाद्य सामग्री के आयात के लिए नकदी फसलों पर निर्भर करते हैं। अफ्रीका में कृषि जलवायु के उतार-चढ़ावों के प्रति अतिसंवेदनशील है, विशेष रूप से सूखे जो स्थानीय स्तर पर खाद्य सामग्री के उत्पादन की मात्रा को कम कर सकते हैं। अन्य कृषि समस्याओं में मिट्टी का बंजरपन, भूमि क्षरण और कटाव, रेगिस्तानी टिड्डियों के झुंड, जो पूरी फसल को नष्ट कर सकते हैं और पशुओं की बीमारियां शामिल हैं। बताया जाता है कि सहारा मरुस्थल का विस्तार प्रति वर्ष 30 मील तक की दर से हो रहा है।[62] सबसे गंभीर अकाल सूखे, गुमराह आर्थिक नीतियों और संघर्ष के संयुक्त कारणों से हुए हैं। उदाहरण के लिए, इथियोपिया में 1983-85 का अकाल इन सभी तीन कारकों का परिणाम था जिसे साम्यवादी सरकार द्वारा उभरते संकट की सेंसरशिप ने और भी बदतर बना दिया था। उसी दौरान सूखे और आर्थिक संकट के साथ-साथ राष्ट्रपति गाफर निमेरी की तत्कालीन सरकार द्वारा किसी तरह की खाद्य सामग्री की कमी से इनकार ने एक ऐसे संकट को जन्म दिया जिसमें संभवतः 250,000 लोग मारे गए थे -- और यह एक मशहूर विद्रोह को जन्म देने में सहायक बना जिसने निमेरी की सत्ता को उखाड़ फेंका.
कई ऐसे कारक हैं जो अफ्रीका में खाद्य सुरक्षा की स्थिति को कमजोर बनाते हैं जिनमें शामिल हैं राजनीतिक अस्थिरता, सैन्य संघर्ष और गृह युद्ध, भ्रष्टाचार और खाद्य सामग्री की आपूर्तियों के संचालन में कुप्रबंधन और व्यापार नीतियां जो अफ्रीकी कृषि को नुकसान पहुंचाते हैं। मानव अधिकारों के हनन के कारण उत्पन्न हुए अकाल का एक उदाहरण 1998 का सूडान का अकाल है। एड्स भी उपलब्ध कार्यबल को कम पर कृषि पर दीर्घ-कालिक आर्थिक प्रभाव डाल रहा है और गरीब परिवारों पर अत्यधिक भार डालकर अकाल के प्रति नए संभावित खतरों को जन्म दे रहा है। दूसरी ओर कुछ अवसरों पर अफ्रीका के आधुनिक इतिहास में अकालों ने तीव्र राजनीतिक अस्थिरता के एक प्रमुख स्रोत के रूप में काम किया है।[63] अफ्रीका में अगर जनसंख्या वृद्धि और मिट्टी के निम्नीकरण का मौजूदा रुझान जारी रहा तो यह महाद्वीप 2025 तक अपनी आबादी के सिर्फ 25% को ही भोजन देने में सक्षम होगा, यह अनुमान यूएनयू के घाना स्थित इंस्टिट्यूट फॉर नेचुरल रिसोर्सेस इन अफ्रीका के मुताबिक़ है।[20]
हाल के उदाहरणों में 1970 के दशक का सहेल का सूखा, 1973 और 1980 के दशक के मध्य मेंइथियोपिया का अकाल, 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में और 1990 तथा 1998 में सूडान का अकाल शामिल है। युगांडा के करामोजा में 1980 का अकाल मृत्यु दर के मामले में इतिहास के सबसे भीषण अकालों में से एक था। इसमें 21% आबादी की मौत हो गयी थी जिसमें 60% नवजात शिशु शामिल थे। [3]
अक्टूबर 1984 में दुनिया भर के टेलीविजन रिपोर्टों में भूख से मर रहे इथियोपियाई लोगों के फुटेज दिखाए गए थे जिनकी स्थिति कोरेम शहर के निकट स्थित एक खाद्य वितरण केंद्र के आसपास केंद्रित थी। बीबीसी के न्यूज़रीडर माइकल बुअर्क ने 23 अक्टूबर 1984 को इस त्रासदी की एक दिल को छू लेने वाली कमेंट्री प्रस्तुत की थी जिसका वर्णन उन्होंने एक "बाइबलिकल अकाल" के रूप में किया था। इसने एक बैंड ऐड एकल को प्रेरित किया जिसका आयोजन बॉब गेल्डोफ़ द्वारा किया गया और इसमें 20 से अधिक अन्य पॉप सितारों को दिखाया गया। लंदन और फिलाडेल्फिया में लाइव ऐड संगीत कार्यक्रमों द्वारा इस आशय के लिए और अधिक रकम जुटायी गयी। एक अनुमान के मुताबिक़ अकाल की वजह से एक साल के अंदर 900,000 लोगों की मौत हो गयी थी लेकिन माना जाता है कि बैंड ऐड और लाइव ऐड द्वारा जुटायी गयी दसियों लाख पाउंड की रकम ने मृत्यु के कगार पर पहुंचे तकरीबन 6,000,000 अन्य इथियोपियाई लोगों की जिंदगियां बचाईं थी। मूलतः अगर बैंड ऐड और लाइव ऐड की सहायता कभी नहीं पहुँची होती तो इथियोपियाई अकाल से मरने वालों की तादाद अधिक से अधिक 7,000,000 तक या उस समय की आबादी की तकरीबन एक चौथाई तक हो सकती थी।[उद्धरण चाहिए]
सन 2000 के बाद के मामले
[संपादित करें]2005-06 का नाइजर खाद्य संकट नाइजर के उत्तरी मरादी, टाहौआ, टिल्लाबेरी और ज़िंदर के क्षेत्रों में व्याप्त एक गंभीर लेकिन स्थानीय खाद्य सुरक्षा संकट था। यह स्थिति वर्ष 2004 की बारिश के जल्दी ख़त्म हो जाने, कुछ चारागाह भूमि पर रेगिस्तान टिड्डी द्वारा पहुंचाए गए नुकसानों, उच्च खाद्य कीमतों और चिरकालिक गरीबी के कारण उत्पन्न हुई थी। प्रभावित क्षेत्र में 3.6 मिलियन लोगों में से 2.4 मिलियन लोग खाद्य असुरक्षा के प्रति अत्यधिक संवेदनशील माने जाते हैं। एक अंतरराष्ट्रीय आकलन में कहा गया है कि इनमें से 800,000 से अधिक लोग चरम खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे हैं और अन्य 800,000 लोग मामूली असुरक्षित खाद्य परिस्थितियों में हैं जिन्हें सहायता की जरूरत है।
यूरोपियन कमीशन के सहायता समूह ने थर्सडे को बताया कि 2010 के सहेल के अकाल ने नाइजर में लाखों लोगों को प्रभावित किया और सहारा मरुस्थल के दक्षिण में सहेल क्षेत्र के देशों में अनिश्चित बारिश से खेती को नुकसान पहुंचाए जाने के बाद संपूर्ण पश्चिम अफ्रीका को खाद्य सामग्रियों की कमी का सामना करना पड़ा. उन्होंने नाइजर, चाड, उत्तरी बुर्किना फासो और उत्तरी नाइजीरिया जैसे देशों के बारे में बताया कि 2009/2010 में खेती के मौसम में अनियमित बारिश के परिणाम स्वरूप इन देशों में खाद्यान्न उत्पादन में भारी कमी आ गयी है। उन्होंने कहा कि सहायता जुटाने के लिए संयुक्त राष्ट्र और शेष अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ओर से मजबूत नेतृत्व की आवश्यकता होगी। "अगर हम काफी तेजी से, काफी पहले से काम करते हैं तो अकाल की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी. अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो एक गंभीर खतरा बना रहेगा. "
6 जुलाई को मेथोडिस्ट रिलीफ एंड डेवलपमेंट फंड (एमडीआरएफ) के सहायता विशेषज्ञों ने कहा कि पूरे नाइजर, माली, मोरीतानिया और मोरक्को में एक महीने तक चली तीव्र गर्म हवाओं की वजह से 1,500,000 से अधिक नाइजीरियाई लोगों पर अकाल का खतरा मंडराने लगा था। नाइजर, माली, बुर्किना फासो और मोरीतानिया के संकट-ग्रस्त देशों को लगभग 20,000 पाउंड के एक कोष का वितरण किया गया था।[64]
खाद्य सुरक्षा बढ़ाने की पहल
[संपादित करें]राष्ट्र या बाजार के माध्यम से परंपरागत हस्तक्षेपों की एक पृष्ठभूमि के खिलाफ खाद्य सुरक्षा की समस्या से निबटने के लिए वैकल्पिक पहल करने का बीड़ा उठाया गया है। इसका एक उदाहरण कृषि विकास के लिए "समुदाय क्षेत्र के आधार पर विकास का दृष्टिकोण" ("सीएबीडीए") है जो अफ्रीका में खाद्य सुरक्षा बढ़ाने के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रदान करने के उद्देश्य से चलाया गया एक एनजीओ कार्यक्रम है। सीएबीडीए हस्तक्षेप के विशिष्ट क्षेत्रों जैसे कि सूखा-प्रतिरोधी फसलों की शुरुआत और खाद्यान्न उत्पादन की नयी विधियों जैसे कि कृषि वानिकी के माध्यम से अपना काम करती है। 1990 के दशक में इथियोपिया में प्रायोगिक रूप से संचालित इस विधि का प्रसार मलावी, युगांडा, इरिट्रिया और केन्या तक हो गया है। इस कार्यक्रम के ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टिट्यूट के एक विश्लेषण में सीएबीडीए द्वारा व्यक्तिगत और सामुदायिक क्षमता-विकास पर ध्यान केंद्रित किये जाने को रेखांकित किया गया है। यह समुदाय द्वारा संचालित संस्थानों के माध्यम से किसानों को अपने स्वयं के विकास को प्रभावित करने और तेज करने में सक्षम बनाता है जो उनके घरों और क्षेत्र के लिए खाद्य सुरक्षा की स्थिति लेकर आता है।[65]
एशिया में अकाल
[संपादित करें]कंबोडिया
[संपादित करें]राजधानी नाम पेन्ह में 1975 में खेमर रूज ने प्रवेश कर कम्बोडिया का नियंत्रण अपने पास ले लिया। पोल पाट के नेतृत्व में नई सरकार ने कम्युनिज्म के बुनियादी आदर्शों को को लागू करते हुए सभी शहरी आवासियों को देहाती क्षेत्रों में सामुदायिक खेतों और नागरिक कार्यों की परियोजनाओं के लिए काम करने हेतु भेज दिया। बिना बाहरी सहायता के और युद्ध के पिछले चार वर्षों में 75 % उपयोगी जानवरों की मौत के कारण और आदर्शवादियों के द्वारा लिखित कृषि मार्गदर्शनों व उत्साही केडर के निरीक्षण में हुए कार्यों के कारण, देश शीघ्र ही अकाल की गर्त में समा गया। कोई भी अंतर्राष्ट्रीय राहत तब तक नहीं आई, जब तक कि 1979 में वियतनामी सेना ने आक्रमण कर देश को मुक्त नहीं कर दिया। जब पोल पाट सत्ता में थे तब कुल आठ मिलियन आबादी में से एक से तीन मिलियन लोग मर गए। कई को मार डाला गया व अधिकांश कुपोषण व अत्यधिक थकान के कारण मर गए और तब अनुपयुक्त व लापरवाह सरकारी अधिकारियों के कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई।[66][67][68].
चीन
[संपादित करें]चीनी विद्वानों ने ईसा पूर्व 108 से 1911 तक किसी न किसी प्रान्त में हुई 1828 अकाल की घटनाओं की गणना की है - जो औसतन लगभग एक अकाल प्रति वर्ष है।[69] 1933 से 1937 के बीच हुए एक भयंकर अकाल में 6 मिलियन चीनी मर गए थे। चार अकाल जो 1810, 1811, 1846 और 1849 में आये थे, उनके लिए कहा जाता है कि उनमे कम से कम 45 मिलियन व्यक्ति मारे गए थे।[70] ताइपिंग बगावत के कारण 1850 से 1873 की अवधि में, सूखे व अकाल की वजह से चीन की आबादी में 60 मिलियन से अधिक की कमी आई.[71] चीन के क्विंग वंश की नौकरशाही ने अकाल कम करने पर विस्तृत रूप से ध्यान दिया उसे एल नीनो - दक्षिण से सम्बन्धित सूखे व बाढ़ के कारण होने वाली अकाल घटनाओं को टालने का श्रेय मिला। इन घटनाओं की तुलना कुछ कम मात्रा में चीन के 19 वीं सदी के विस्तृत अकालों की पारिस्थितिक घटनाओं से की जा सकती है। (पियरे -एटिन विल, ब्योरोक्रेसी एंड फेमिन) क्विंग चीन ने राहत के प्रयास किये, जिसमें शामिल थे विशाल प्रमाण में खाद्यान्न भेजना और वह एक जरूरत थी जिससे अमीरों ने गरीबों व मूल्य नियमन के लिए अपने भंडारगृह खोल दिए और यह शासन की ओर से किसानों को दी जाने वाली निर्वाह की गारंटी के भाग के रूप में था (मिंग -शेंग के रूप में जाना गया).
उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब एक तनावग्रस्त साम्राज्य राज्य प्रबंधन से हट गया और अनाज को सीधे ही आर्थिक दानशीलता के लिए भेजा जाने लगा, तब वह प्रणाली समाप्त हो गई। इस प्रकार तोंगाज़ी पुनर्स्थापना के अंतर्गत 1867-68 के अकाल से सफलतापूर्वक निजात पा लिया गया, लेकिन 1877-78 में विशाल उत्तरी चीन में जो अकाल आया वह उत्तरी चीन में आये सूखे के कारण आया महाविनाश था। शांक्सी प्रांत में आबादी उल्लेखनीय रूप से कम होने लगी, क्योंकि अनाज ख़त्म हो गया था और भूखे लोगों ने हताशा में जंगलों, खेतों व अपने घरों को भी अनाज के लिए उजाड़ दिया था। अनुमानित मृत्यु संख्या 9.5 से 13 मिलियन व्यक्तियों की है।[72] (माइक डेविस, लेट विक्टोरियन होलोकास्ट्स).
ग्रेट लीप फॉरवर्ड (बड़ी छलांग)
[संपादित करें]सबसे बड़ा अकाल 20 वीं सदी का, बल्कि सभी समय के दौर का, चीन का 1958-61 का ग्रेट लीप फॉरवर्ड अकाल रहा है। इस अकाल का तात्कालिक कारण था माओ जेडोंग द्वारा चीन को कृषि राष्ट्र से एक औद्यगिक राष्ट्र के रूप में मात्र एक बड़ी छलांग के द्वारा दुर्भाग्य पूर्ण ढंग से रूपांतरित कर देने का प्रयास. पूरे चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के केडर आग्रह करते थे कि किसानों को अपने खेतों को सामूहिक खेती के लिए त्याग देना चाहिए और छोटे कारखानों में स्टील का उत्पादन आरम्भ कर देना चाहिए, इस प्रक्रिया में कई बार उनके खेती के औजार भी पिघल जाते थे। सामूहिकीकरण ने कृषि में श्रम व स्त्रोतों को निरुत्साह किया, विकेन्द्रित धातु उत्पादन की अवास्तविक योजनाओं ने आवश्यक श्रम को क्षति पहुंचाई, मौसम की प्रतिकूल स्थितियों व सामुदायिक भोजन कक्षों ने उपलब्ध खाद्यान्न की फिजूल खपत को प्रोत्साहित किया। (देखें चांग जी व वेन जी (1997) "कम्युनल डायनिंग एंड द चायनीज फेमिन 1958-1961"). सूचना पर केन्द्रित नियंत्रण व पार्टी केडर पर अत्यधिक दबाव की स्थिति ऐसी थी कि केवल सही खबर की रिपोर्ट ही दी जाती थी - जैसे कि उत्पादन लक्ष्य को पूरा कर लिया गया या उत्पादन उससे भी अधिक रहा- बढ़ते विनाश की सूचनाओं को प्रभावी ढंग से दबा दिया जाता था। अकाल की स्थिति की जानकारी जब नेतृत्व को हुई तब प्रतिसाद के रूप में उसने थोड़ा काम किया और इस महाविनाश पर किसी भी प्रकार की चर्चा करने पर अपना प्रतिबन्ध जारी रखा। समाचारों को दबाने की यह व्यापक क्रिया इतनी प्रभावी थी कि अकाल की गंभीरता से कुछ चीनी ही वाकिफ थे और 20 वीं सदी के शांतिकाल में हुए उस जनसंख्या महाविनाश की जानकारी बीस वर्ष बाद सबको तब ही मालूम हुई, जब सेंसरशिप का पर्दा उठना प्रारंभ हो गया।
अनुमान लगे जाता है कि 1958-61 के अकाल से मृत्यु संख्या 36 से बढ़ कर करीब 45 मिलियन की रही,[73][74] साथ में 30 मिलियन की संख्या उन जन्मों की थी जिन्हें रद्द कर दिया गया या लंबित कर दिया गया। [75] अकाल जब विकराल रूप में अपने परिणाम लाया, तब माओ ने कृषि सामूहिक योजनाओं को बलपूर्वक पलटा और 1978 में प्रभावी ढंग से उन्हें समाप्त कर दिया गया। चीन ने 1961 के बाद बड़ी अग्रिम छलांग की तुलना में और किसी अकाल को अनुभव नहीं किया।[76]
भारत
[संपादित करें]मानसून वर्षा पर लगभग पूरी तरह से निर्भर रहने से फसल की असफलता के कारण भारत भी काफी असुरक्षित रहा और इससे अकाल की स्थिति गंभीर होती रही। [77] भारत में 11 वीं से 17 वीं सदी के बीच कुल 14 अकाल हुए (भाटिया 1985). उदाहरण के रूप में 1022-1033 के बीच बड़े अकालों के कारण भारत के सभी प्रांत लगभग जनसंख्या विहीन हो गए थे। डेक्कन के अकाल में 1702-1704 में कम से कम 2 मिलियन व्यक्ति मर गए। बी. एम. भाटिया का मानना है कि पहले के अकालों को स्थानीकृत किया गया था और 1860 के पश्चात ही ब्रिटिश शासन में देश में खाद्यान्न की सामान्य कमी अकाल से सम्बद्ध रही। लगभग बड़े 25 अकाल आये जो 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में दक्षिण में तमिलनाडु व पूर्व में बिहार व बंगाल जैसे राज्यों में फैले थे।
रमेश चन्दर दत्त 1900 में व वर्तमान काल के विद्वान जैसे कि अमर्त्य सेन सहमत हैं कि इतिहास में दर्ज कुछ अकाल तो असमान वर्षा व उन ब्रिटिश आर्थिक व प्रशासनिक योजनायों का संयुक्त प्रतिफल थे, जिसमें 1857 से स्थानीय कृषि भूमि का कब्ज़ा कर विदेशी स्वामित्व के वृक्षारोपण के लिए उसे रूपांतरित करना, आंतरिक व्यापार पर प्रतिबन्ध, अफगानिस्तान के अभियान के लिए ब्रिटेन को सहारा देने के लिए भारतीय नागरिकों पर भारी कर (देखें सेकण्ड एंग्लो -अफगान वार), मुद्रास्फीति कार्य जिससे कि खाद्यान्न की कीमतों में वृद्धि और भारत से ब्रिटेन में प्रमुख आहार का उल्लेखनीय मात्रा में निर्यात सम्मिलित थे। (दत्त,1900 एवं 1902, श्रीवास्तव 1968, सेन 1982, भाटिया 1985). कुछ ब्रिटिश नागरिकों जैसे कि विलियम डिग्बी ने योजना सुधारों व अकाल राहत कार्यों के लिए आन्दोलन किया लेकिन भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड लायटन ने इन परिवर्तनों का विरोध किया क्योंकि उनका अनुमान था कि इससे भारतीय कर्मियों में कामचोरी को प्रोत्साहन मिलेगा. बंगाल का प्रथम अकाल जो 1770 में हुआ उसमें अनुमानतः लगभग 10 मिलियन लोगों की मृत्यु हुई थी, जो उस समय के बंगाल की आबादी का एक तिहाई था। अन्य उल्लेखनीय अकालों में सम्मिलित हैं 1876-78 का बड़ा अकाल जिसमें 6.1 मिलियन से 10.3 मिलियन लोगों की मौत हुई[78] व भारतीय अकाल 1899-1900 का जिससे 1.25 से 10 मिलियन व्यक्तियों की मौत हुई। [78] बंगाल के 1943-44 के अकाल सहित अकाल आजादी वर्ष 1947 तक जारी रहे, यद्यपि कोई फसल प्राप्त करने की असफलता नहीं थी, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1.5 मिलियन से 3 मिलियन बंगाली मारे गए।
अकाल आयोग ने 1880 में अवलोकनों के द्वारा इस तथ्य को पुष्ट किया कि अकालों के लिए खाद्यान्न कमी उतनी जवाबदेह नहीं है जितना कि खाद्यान्न वितरण का प्रबंधन है। उन्होंने पाया कि ब्रिटिश भारत के प्रत्येक प्रान्त में जिसमें बर्मा भी शामिल था, वहां खाद्यान्न का आधिक्य था और वार्षिक आधिक्य 5.6 मिलियन टन था (भाटिया 1970). उस दौरान चावल व अन्य अनाजों का भारत से वार्षिक निर्यात लगभग एक मिलियन टन था।
वर्ष 1966 में बिहार भी अकाल की कगार पर था, जब अकाल से निबटने के लिए यूनाइटेड स्टेट्स ने 900,000 टन अनाज आवंटित किया था। भारत में तीन वर्षों के सूखे के परिणाम स्वरूप लगभग 1.5 मिलियन मौतें भूख व रोगों के कारण हुई। [79]
जापान
[संपादित करें]एक शासी निकाय के अनुसार 1603 से 1868 के बीच इदो अवधि में कम से कम 130 अकाल हुए थे जिनमें से 21 उल्लेखनीय थे।[80]
मध्य पूर्व
[संपादित करें]उदाहरण के रूप में इराक ने 1801, 1827 व 1831 में अकालों का सामना किया। अनातोलिया में 1873-74 में एक बड़ा अकाल आया जिसमें सैकड़ों- हजारों व्यक्तियों की मौत हुई। [81]
ऐसा विश्वास किया जाता है कि 1870-1871 में हुए बड़े पर्शियन अकाल में पर्शिया (आज का इरान) में 1.5 मिलयन व्यक्तियों की मौत हुई जो पर्शिया की कुल अनुमानित आबादी 6-7 मिलियन के 20-25 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करती है।[82]
लेबनान विदेश से खाद्यान्न आयातों पर अत्यधिक निर्भर रहा, इसलिए प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वह देश, अनाज के मामले में अधिक नाजुक स्थिति में था। युद्ध के समाप्त होने पर अकाल में लेबनान की 4,50,000 आबादी में से 100,000 व्यक्तियों की मृत्यु हुई। [83]
उत्तर कोरिया
[संपादित करें]उत्तर कोरिया में 1990 के दशक के मध्य में अभूतपूर्व बाढ़ों के कारण अकाल आये। आत्मनिर्भर अर्थतंत्र वाले इस शहरी औद्योगिक समाज ने इसके पूर्व के दशकों में बड़े पैमाने पर कृषि से औद्योगिकीकरण के द्वारा खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त की थी। फिर भी अर्थतंत्र प्रणाली सोवियत संघ व चीन गणतंत्र से प्राप्त बड़ी रियायती जीवाश्म इंधन की सहायता पर निर्भर रही। लेकिन जब सोवियत संघ विघटित हो गया और चीन का बाजार तंत्र पूर्ण कीमत के आधार पर कठोर मुद्रा की और उन्मुख हो गया, तब उत्तर कोरिया की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई। नाजुक कृषि क्षेत्र में 1995-96 में बड़ी असफलता का अनुभव हुआ और उससे 1996-99 में विस्तृत अकाल आया। अनुमान है कि भूख से 600,000 व्यक्ति मरे (अन्य के अनुमान के अनुसार यह संख्या २००,००० से लेकर 3.5 मिलियन की है).[84] अब तक उत्तर कोरिया में खाद्य आत्म निर्भरता नहीं आई है और वह चीन, जापान, दक्षिण कोरिया व यूनाइटेड स्टेट्स से प्राप्त बाह्य खाद्यान्न सहायता पर आश्रित रहता है। जबकि वू कमिंग्स ने अकाल के एफएडी की ओर ध्यान केन्द्रित किया है, लेकिन मून का तर्क है कि एफएडी ने प्रोत्साहन के ढांचे को अधिकारवादी शासन की ओर कर लिया है, जिससे मताधिकार से वंचित कई मिलियन व्यक्ति भूख से मरने को मजबूर हो गए हैं (मून, 2009).[85]
वियतनाम
[संपादित करें]वियतनाम में कई अकाल आये हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के कब्जे के कारण वियतनाम में 1945 में अकाल आया जिससे 2 मिलियन मौतें हुई जो वहां की तत्कालीन आबादी का 10% था। [86] वियतनाम युद्ध के पश्चात देश के एकीकरण के समय वियतनाम में 1980 के दशक में खाद्यान्नों की कमी महसूस की गई जिसने कई व्यक्तियों को देश छोड़ने के लिए प्रेरित किया।
यूरोप में अकाल
[संपादित करें]पश्चिमी यूरोप
[संपादित करें]सन् 1315 से 1317 (या 1322 तक) का भीषण अकाल पहला बड़ा खाद्य संकट था जिसने यूरोप को 14वीं शताब्दी में घेरे रखा। उत्तरी यूरोप में कई वर्षों तक लाखों लोग मारे गए, अकाल ने 11वीं और 12वीं शताब्दी की समृद्धि को नष्ट कर दिया। [87] अकाल 1315 की बसंत ऋतु में खराब मौसम के साथ शुरू हुआ और फसलों का व्यापक नुकसान 1317 की गर्मियों तक जारी रहा, जिससे यूरोप 1322 तक उबर नहीं पाया। इस अवधि को बड़े पैमाने पर आपराधिक गतिविधियों, बीमारियों और जनसंहारों, शिशुहत्याओं और निष्ठुरता के काल के रूप में याद रखा गया। यह अकाल चौदहवीं शताब्दी में चर्च, राज्य, यूरोपियन समाज और भविष्य की आपदाओं पर अपने प्रभाव छोड़ गया। उस दौरान मध्यकालीन ब्रिटेन 95 अकालों,[88] और फ़्रांस 75 या उससे अधिक अकालों से प्रभावित हुआ़.[89] 1315-6 के अकाल में इंग्लैंड की कम से कम 10% आबादी या कम से कम 500,000 लोग मारे गए।[90]
17वीं शताब्दी का समय यूरोप में खाद्य उत्पादकों के लिए परिवर्तन का काल था। शताब्दियों तक वे सामंतवादी व्यवस्था में कृषि पर गुजारा करने वाले किसानों के रूप में रहे थे। वे अपने मालिकों के ऋणी थे, जिनके पास अपने किसानों द्वारा जोती गई जमीन के विशेषाधिकार थे। जागीर का मालिक वर्ष भर में उत्पादित फसल और पशुधन का एक भाग लेता था। किसान सामान्यतया कृषि खाद्य उत्पादन में किए गए काम को न्युनतम करने की कोशिश करते थे। उनके मालिक उन पर खाद्य उत्पादन बढ़ाने के लिए बहुत ही कम जोर डालते थे, जब आबादी बढ़ने लगी केवल तब किसानों ने खुद ही उत्पादन बढ़ाना शुरू कर दिया। जुताई के लिए अधिक से अधिक जमीन का उपयोग किया गया जबतक कोई जमीन बची ही नहीं और किसान अधिक श्रम आधारित पद्धतियां अपनाने को मजबूर हुए. जब तक कि उनके पास अपने परिवार को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन था तब तक वे अपना समय दूसरे कामों जैसे शिकार करने, मछली पकड़ने या आराम करने में बिताना पसंद करते थे। जितना खाना वे खा सके या खुद के लिए संग्रहीत कर सके उससे ज्यादा उत्पादन करना आवश्यक नहीं था।
17वीं शताब्दी के दौरान पिछली शताब्दियों के प्रचलन को जारी रखते हुए बाजार-चालित कृषि में बढ़ोतरी हुई। खासतौर पर पश्चिमी यूरोप में किसान, वे लोग जिन्होंने भूमि के उत्पादों से लाभ कमाने के लिए भूमि उधार दी थी और मजदूरी पाने वाले मजदूर तेजी से आम बात हो गए। उत्पाद को मांग वाले क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा बेचने के लिए जितना संभव हो सके उतना अधिक उत्पादन करना उनके हित में था। उन्होंने हर साल फसल में बढ़ोतरी की जब भी वे कर पाए. किसानों ने अपने मजदूरों का भुगतान पैसों से किया इसने ग्रामीण समाज में व्यवसायीकरण को बढ़ावा दिया। इस व्यवसायीकरण ने किसानों के व्यावहार पर गहरा प्रभाव डाला। किसान अपनी भूमि पर श्रमिक इनपुट को बढ़ाने में रुचि रखने लगे थे, न कि कृषि पर गुजारा करने वाले किसानों की तरह इनपुट घटाने में.
कृषि पर गुजारा करने वाले किसान भी बढ़ते हुए करों के कारण अपनी गतिविधियों को व्यवसायीकृत करने के लिए बाध्य हो गए। करों का भुगतान केंद्र सरकार को पैसों में करना होता था जिसने किसानों को उनकी फसल को बेचने हेतु बाध्य किया। कई बार उन्होंने औद्योगिक फसलों का उत्पादन किया, लेकिन उनकी खाद्य आवश्यकताओं और कर बाध्यताओं को पूरा करने के लिए उत्पादन बढ़ाने हेतु उन्होंने कई रास्ते ढूंढ़े. किसानों ने इस नए धन को उपयोग निर्मित वस्तुएओं को खरीदने के लिए भी किया। कृषि और सामाजिक विकास ने खाद्य उत्पादन को बढ़ावा दिया जो पूरी 16वीं शताब्दी में अपना स्थान लेता रहा लेकिन सत्रहवीं शताब्दी में जब यूरोप ने सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में खुद को खाद्य उत्पादन के लिए विपरीत परिस्थिातियों में पाया तब यह प्रत्यक्ष रूप से और बढ़ गया – सोहलवीं शताब्दी के अंत में पृथ्वी के तापमान में गिरावट का दौर था।
1590 के दशक में कुछ निश्चित क्षेत्रों विशेष तौर पर नीदरलैंड को छोड़कर पूरे यूरोप में कई शताब्दियों का सबसे भीषण अकाल देखने को मिला। तुलनात्मक रूप से 16वीं शताब्दी के दौरान अकाल दुर्लभ हो गए थे। जैसा कि अपेक्षाकृत शांति की लंबी अवधि के दौरान अधिकतर देखा जाता है, अर्थव्यवस्था एवं आबादी में सतत विकास दर्ज किया गया। चूंकि किसान काम को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक बांटने का प्रयास करते हैं, इसलिए कृषि पर गुजारा करने वाले किसानों की जनसँख्या भी लगभग हमेशा ही बढ़ती है। हांलाकि सघन जन आबादी वाले क्षेत्रों जैसे उत्तरी इटली में किसानों ने प्रौमिस्क्युअस कल्चर जैसी तकनीकों से अपनी भूमि की पैदावार को बढ़ाना सीख लिया था, लेकिन वे अभी भी अकालों से असुरक्षित थे, इसने उन्हें अपनी भूमि पर और अधिक सघनता से कार्य करने हेतु बाध्य किया।
अकाल बेहद अस्थिर करने वाली और विनाशकारी घटनाएं होती है। भुखमरी की संभावना ने लोगों को जोखिम भरे कदम उठाने हेतु बाध्य किया। जब खाद्य पदार्थों का अभाव नज़र आने लगा तो वे अल्पकालीन उत्तर जीविता के लिए दीर्घकालीन समृद्धि से समझौता करने लगे। बाद के वर्षों में घटते उत्पादन के कारण वे अपने बोझा उठाने वाले पशुओं को मारने लगे। वे अगले वर्ष की फसल से समझौता करते हुए इस उम्मीद के साथ कि उन्हें और बीज मिल जाएंगे वे अपने बीज के दाने भी खाने लगे। एक बार जब ये साधन भी समाप्त होने लगे उन्होंने खाने की खोज में नई राह पकड़ ली। वे उन शहरों में चले गए जहां अन्य क्षेत्रों से खाद्य पदार्थ बेचने के लिए व्यापारियों के आने की संभावना थी क्योंकि शहरों में क्रय शक्ति ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक थी। शहरों में व्यवस्था को बनाए रखने के लिए राहत कार्यक्रम चलाए गए थे और वहां की जनता के लिए अनाज लाया गया था। प्रवासियों की निराशा और असमंजस वाली स्थिति के कारण अक्सत अपराध भी बढ़ जाया करते थे। कई किसान पर्याप्ता खाना पाने के लिए डाका भी डालने लगे।
एक अकाल अक्सर बाद के वर्षों में बीज की कमी या दिनचर्या में व्यवधान या श्रम की कमी के कारण अपने साथ कई कठिनाईया भी लेकर आता था। अकालों को अक्सर दैवी कोप के रूप में समझा जाता था। अकालों को ईश्वर द्वारा पृथ्वी के लोगों को दिए गए उपहारों को वापस ले लेने के रूप में देखा जाता था। अकाल के रूप में ईश्वर के क्रोध से बचने के लिए विस्तृत जुलूस और धार्मिक कृत्य किए जाने लगे।
1590 के भीषण अकाल से अकालों के समय की शुरुआत हुई और 17वीं शताब्दी में इनमें कमी आई. जनसंख्या की तरह पूरे यूरोप में अनाज के दाम भी बढ़ गए थे। 1590 में विभिन्न क्षेत्रों में हुई खराब सिंचाई के कारण विभिन्न प्रकार के लोग असुरक्षित हो गए थे। ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती हुई श्रमिक संख्या भी असुरक्षित थी क्योंकि उनके पास खुद का भोजन नहीं था और एक खराब फसल के वर्ष में उनके पास खरीदने के लिए भी पर्याप्त धन नहीं था। कस्बों के श्रमिक भी खतरे में थे क्योंकि उनका वेतन भी अनाज की कीमत को पूरा करने के लिए अपर्याप्त था, वे खराब फसल के वर्ष में अक्सर कम मजदूरी प्राप्त करते थे क्योंकि धनी लोग अपनी उपलब्ध आय को अनाज खरीदने के लिए व्याय करते थे। अक्सर बेरोजगारी का परिणाम अनाज के दामों में वृद्धि के रूप में होता था जिस कारण शहरी गरीब लोगों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती रहती थी।
यूरोप के सभी क्षेत्र खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्र इस दौरान अकाल से बुरी तरह प्रभावित हुए. नीदरलैंड जोकि अकाल के सबसे बुरे प्रभावों से बचने में सफल रहा था लेकिन 1590 का वर्ष वहां पर भी कठिन था। एम्सटर्डम अनाज व्यापार (बाल्टिक के साथ) जिसके लिए वास्तकविक अकाल नहीं घटा था, ने इस बात की गारंटी दी कि नीदरलैंड में हमेशा कुछ न कुछ खाने को होगा यद्यपि भुखमरी प्रबल थी।
इस समय नीदरलैंड के पास पूरे यूरोप में सबसे ज्यादा व्यसायीकृत कृषि थी, कई औद्योगिक फसलें जैसे फ्लैक्स, हैम्प और होप्स उगाई जा रही थी। कृषि अधिक से अधिक विशिष्ट और कुशल हो गई थी। परिणामस्वरूप उत्पादकता और धन बढ़ा जिसने नीदरलैंड को नियमित खाद्य आपूर्ति बनाए रखने में मदद की। 1620 तक अर्थव्यवस्था और भी विकसित हो चुकी थी इसलिए नीदरलैंड अकाल के समय की परेशानियों और यहां तक कि घोर पीड़ा से भी बचे रहने में सफल रहा था।
सन 1620 के आसपास पूरे यूरोप में अकाल फैलने का दूसरा दौर दिखाई पड़ा. हालांकि पच्चीस बरस पहले के अकालों के मुकाबले आमतौर पर इनकी गंभीरता काफी कम थी, लेकिन फिर भी कई इलाकों में इन्होंने काफी गंभीर रूप धारण कर लिया था। 1696 का फिनलैंड का भीषण अकाल, जो सन 1600 के बाद का संभवतः सबसे विनाशकारी अकाल था, ने उस देश की एक-तिहाई आबादी को मौत के मुंह में धकेल दिया था। [4]पीडीऍफ (589 KiB)
1693 और 1710 के बीच फ्रांस में दो बड़े अकालों का प्रकोप आया और इसने 20 लाख से अधिक लोगों को खत्म कर दिया। दोनों मामलों में फसल खराब होने से पैदा हालात को लड़ाई के दौरान खाद्य आपूर्ति की मांग ने और ज्यादा खराब कर दिया। [91]
यहां तक कि स्कॉटलैंड को 1690 के दशक के अंत में भी अकाल झेलना पड़ा जिसके कारण स्कॉटलैंड के कुछ हिस्सों की आबादी में 15% की घटोत्तरी देखी गयी।[92]
1695-96 के अकाल ने नॉर्वे की लगभग 10% जनसंख्या को खत्म कर दिया। [93] स्कैंडिनेवियाई (संयुक्त रूप से डेनमार्क, नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड व आइसलैंड) देशों में 1740 और 1800 के बीच कम से कम नौ बार भीषण रूप से फसल खराब होना दर्ज किया गया, जिसमें से हर एक के परिणाम स्वरूप मृत्यु दर में अच्छी-खासी बढ़ोत्तरी देखी गयी।[94]
1740-43 के दौर में बेहद ठंडी सर्दियां और गर्मियों में भयानक सूखा देखा गया जिसकी वजह से पूरे यूरोप में अकाल फैला और मृत्यु दर में अचानक तेज बढ़ोत्तरी हो गई। (डेविस द्वारा लिखित, लेट विक्टोरियन होलोकास्ट, पृष्ठ 281 में उल्लेखित) यह संभावना है कि 1740-41 की बेहद ठंडी सर्दी, जिसकी वजह से उत्तरी यूरोप में बड़े पैमाने पर अकाल फैला, उसका मूल कारण एक ज्वालामुखी विस्फोट रहा हो। [95]
महा अकाल, जो 1770 से 1771 तक चला, ने चेक गणराज्या की आबादी के लगभग दसवें हिस्से, या 250,000 निवासियों को खत्म कर दिया और ग्रामीण इलाकों में बदलाव की अलख जगाई जिसने किसान विद्रोहों को जन्म दिया। [96]
यूरोप के अन्य इलाकों में तो अकाल काफी हाल तक भी आते रहे हैं। फ्रांस ने उन्नीसवीं शताब्दी में अकाल का सामना किया। पूर्वी यूरोप में 20वीं शताब्दी के दौरान भी अकाल आते रहे हैं।
अकाल की आवृत्ति जलवायु परिवर्तन के साथ बदल सकती है। उदाहरण के लिए, 15वीं सदी से 18वीं सदी के लघु हिम युग के दौरान, यूरोपीय अकालों की आवृत्ति में पिछली सदी की तुलना में लगातार वृद्धि हुई।
कई समाजों में अक्सर अकाल पड़ने के कारण ये काफी लंबे समय से सरकारों और अन्य प्राधिकरणों के लिए चिंता का एक प्रमुख विषय रहा है। पूर्व-औद्योगिक यूरोप में, अकाल को रोकना और समय पर भोजन की आपूर्ति सुनिश्चित करना कई सरकारों की प्रमुख चिंताओं में से एक था, जिसकी वजह से वे अकाल के प्रकोप को कम करने के लिए मूल्य नियंत्रण, अन्य क्षेत्रों से भोजन के भंडार खरीदना, वितरण नियंत्रण और उत्पादन नियंत्रण जैसे विभिन्न उपायों को लागू करती रही हैं। अधिकांश सरकारें अकाल से चिंतित रहती थीं क्योंकि यह विद्रोह और सामाजिक विघटन के अन्य रूपों को जन्म दे सकता था।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नीदरलैंड में अकाल फिर लौट आया जिसे होंगरविंटर के रूप में जाना गया। यह यूरोप का अंतिम अकाल था जिसमें लगभग 30,000 लोग भुखमरी का शिकार हुए. यूरोप के कुछ अन्य क्षेत्रों में भी उसी समय में अकाल का अनुभव किया गया।
इटली
[संपादित करें]फसल विफलता उत्तरी इतालवी अर्थव्यवस्था के लिए काफी विनाशकारी साबित हुई। क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पिछले अकालों से अच्छी तरह उबरने में सक्षम रही थी, लेकिन 1618 से 1621 के अकाल युद्ध की अवधि के दौरान ही आये। अर्थव्यवस्था सदियों तक पूरी तरह से उबर नहीं पाई. पूरे उत्तरी इटली में 1640 के दशक के अंतिम वर्षों में गंभीर और 1670 के दशक में कम गंभीर अकाल आये।
उत्तरी इटली में, 1767 की एक रिपोर्ट में कहा गया कि वहाँ पिछले 316 वर्षों (अर्थात 1451-1767 की अवधि) में से 111 वर्षों में अकाल आया था और सिर्फ सोलह वर्षों में अच्छी पैदावार हुई थी।[97]
स्टीफन एल. डाइसन और रॉबर्ट जे. रोलैंड के अनुसार, "केलियरी की जेसुइट्स [सार्डिनिया में] ने 1500वीं सदी के अंत के कुछ ऐसे वर्षों का वर्णन किया है "जिनके दौरान इतनी भीषण भुखमरी तथा बंजरता देखी गयी कि ज्यादातर लोगों को अपनी जान बचाने के लिए जंगली पेड़-पौधों का सहारा लेना पड़ा" ... कहा जाता है कि 1680 के भयानक अकाल के दौरान, 250,000 की कुल जनसंख्या में से लगभग 80000 लोग मारे गए और पूरे गांव के गांव तबाह हो गए थे। .."[98]
इंग्लैंड
[संपादित करें]1536 से इंग्लैंड में गरीबों से संबंधित कानून बनाने शुरू किये गए जिनमें इलाके के धनी लोगों पर वहां के गरीबों के निर्वहन की कानूनी जिम्मेदारी डालने की बात कही गयी। अंग्रेजी कृषि उद्योग नीदरलैंड से पिछड़ा हुआ था, लेकिन 1650 तक उसने अपने कृषि उद्योग का व्यापक पैमाने पर व्यवसायीकरण कर लिया। इंग्लैंड में शांति के समय का आखिरी अकाल 1623-24 आया।[90] वहाँ नीदरलैंड के समान ही अभी भी कभी-कभार भुखमरी देखी जाती थी, लेकिन वहाँ अब पहले के तरह के और अकाल नहीं आये। गरीबों के भोजन में आलू की बढ़ती महत्ता के बावजूद बढ़ती आबादी ने खाद्य सुरक्षा पर निरंतर दबाव बनाए रखा। कुल मिलाकर, इंग्लैंड में आलू से खाद्य सुरक्षा में वृद्धि हुई जहां गरीबों के प्रधान भोजन के रूप में वे रोटी के जगह कभी नहीं ले पाए. इस बात की संभावन अत्यंत कम थी कि जलवायु स्थितियां एक साथ गेहूं और आलू, दोनों की फसलों के लिए घातक हों.
आइसलैंड
[संपादित करें]ब्राइसन (1974) के अनुसार, 1500 और 1804 के बीच आइसलैंड में सैंतीस वर्षों में अकाल पड़े थे।[99]
1783 में दक्षिण मध्य आइसलैंड में ज्वालामुखी लाकी भड़क उठा. लावा से प्रत्यक्ष क्षति तो अधिक नहीं हुई, लेकिन लगभग पूरे देश में राख और सल्फर डाइऑक्साइड फ़ैल जाने के कारण वहां का लगभग तीन-चौथाई पशु-धन नष्ट हो गया। उसके बाद आने वाले अकाल में लगभग दस हजार लोग मारे गए, जो आइसलैंड की तत्कालीन जनसंख्या का पांचवां हिस्सा था। [असिमोव, 1984, 152-153]
आइसलैंड 1862 से 1864 के बीच एक आलू अकाल से भी ग्रस्त हुआ था। हालांकि आयरिश आलू अकाल की तुलना में इसके बारे में कम ही लोगों को पता है, आइसलैंड का आलू अकाल भी उसी बीमारी के कारण उत्पन्न हुआ था जिसने 1840 के दशक के दौरान अधिकांश यूरोप में तबाही मचाई थी। आइसलैंड की जनसंख्या का लगभग 5 प्रतिशत अकाल के दौरान मौत के मुंह में समा गया।
फिनलैंड
[संपादित करें]देश ने गंभीर अकाल झेले हैं और 1696-1697 के अकाल में एक तिहाई जनसंख्या की मौत हुई। [100] 1866-1868 के फिनलैंड के अकाल के कारण 15% जनसंख्या मौत के मुंह में समा गयी थी।
आयरलैंड
[संपादित करें]1845-1849 के आयरलैंड के भयंकर अकाल के लिए लॉर्ड रसैल के नेतृत्व वाली यूनाइटेड किंगडम की व्हिग सरकार की नीतियां भी काफी हद तक जिम्मेदार थीं।[101][102] आयरलैंड में ज्यादातर भूमि अंग्रेजी मूल के ऐंजलीकन लोगों के स्वामित्व में थी, जो सांस्कृतिक या जातीय रूप से आयरिश आबादी के साथ जुड़े नहीं थे। जमींदार एंग्लो - आयरिश के रूप में जाने जाते थे और उन्होंने अपने किरायेदारों को सहायता प्रदान करने के लिए अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करने में कोई मलाल नहीं महसूस किया और वास्तव में उन्होंने इसे अत्यधिक लाभ वाली पशु चराई के लिए और अधिक भूमि पर दावा करने की संभावना के रूप में देखा क्योंकि आयरिश लोग या तो मर गए थे या पलायन कर गए थे। आयरलैंड में खाद्य संकट की समस्या के जवाब में ब्रिटिश सरकार ने इसे पूरी तरह बाजार की ताकतों द्वारा तय करने के लिए छोड़ दिया था। वास्तव में, चूंकि अंग्रेजों ने सदियों से देशज आयरिश लोगों से बलपूर्वक जमीन हड़प ली थी, आइरिश लोगों के पास आलू की खेती के लिए रखी गई थोड़ी सी जमीन के अलावा जीवनयापन के बहुत कम साधन थे। आलू आयरिश लोगों द्वारा पैदा किया जाता था क्योंकि यह प्रति एकड़ एक बहुत ही उच्च कैलोरी वाली उपज होती है। यहां तक कि अगर आयरिश लोग अन्य फसलों को प्राप्त करने में सक्षम भी होते तो भी वे उन्हें आवंटित थोड़ी सी जमीन द्वारा पूरी आबादी की भरपाई करने में सक्षम नहीं होते, केवल आलू की फसल ही ऐसा कर सकती थी। आयरलैंड अकाल के दौरान खाद्यान्न का एक शुद्ध खाद्य निर्यातक था, जबकि ब्रिटिश सेना बंदरगाहों और भोजन डिपो को भूखी जनता से बचाने का काम करती थी।
इसका तात्कालिक प्रभाव 1,000,000 मौतें और 2,000,000 शरणार्थियों का ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य अमेरिका में पलायन था।[103] अकाल के बीत जाने के बाद अकाल द्वारा उत्पन्न बंजरता, जमींदारों द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था द्वारा प्रेरित बीमारियों एवं उत्प्रवास को पूरी तरह से कम आंकना आबादी के 100 वर्ष पिछड़ने का कारण बना। आयरलैंड की आबादी, जो उस समय अकाल के पूर्व की कुल आबादी की मात्र आधी रह गयी थी, में 1970 (आयलैंड के ज्यादातर भाग के स्वतंत्र होने की आधी शताब्दी बाद) के बाद ही दोबारा से बढ़ोत्तरी देखी गयी। अकाल के बाद आयरिश जनसंख्या में गिरावट का यह वह काल था जब यूरोप की आबादी दुगनी और अंग्रेजों की आबादी चार गुना बढ़ी थी। इसके कारण देश में आबादी अत्यधिक कम हो गई। अकाल द्वारा देश के सर्वाधिक प्रभावित इलाकों (पश्चिमी तट) में आबादी में गिरावट का दौर 1990 के दशक - अर्थात् अकाल तथा ब्रिटिश सरकार की अहस्तक्षेप की आर्थिक नीति के 150 वर्ष बाद - तक भी जारी रहा। अकाल के पूर्व आयरलैंड की आबादी इंग्लैंड की आबादी के आधे से थोड़ा अधिक थी। आज यह 10 % से भी कम है। आयलैंड की आबादी 5 मिलियन है लेकिन आयरलैंड से बाहर आयरिश मूल के लोगों की संख्या 80 मिलियन से अधिक है। जो कि आयरलैंड की आबादी का सोलह गुना है।
रूस और सोवियत संघ
[संपादित करें]स्कॉट एवं डंकन (2002) के अनुसार, "1500 ई. से 1700 ई. के मध्य पूर्वी यूरोप ने 150 से अधिक दर्ज हुए अकाल झेले हैं, जबकि रूस में 971 ई. से 1974 ई. तक भुखमरी के 100 वर्ष और अकाल के 121 वर्ष रहे हैं।"[104]
रूसी साम्राज्य प्रत्येक 10 से 13 वर्ष में सूखे और अकाल के लिये जाना जाता है जिसमें से सूखे का औसत प्रत्येक 5 से 7 वर्ष है। 1845 से 1922 के मध्य रूस में ग्यारह बड़े अकाल पड़े जिनमें से 1891-92 का अकाल सर्वाधिक भयंकर था।[105] सोवियत काल में भी अकाल जारी रहे जिसमें से 1932-33 की सर्दियों में देश के विभिन्न भागों, विशेषकर वोल्गा, यूक्रेन, एवं उत्तरी कजाकिस्तान में पड़े अकालों में होलोदोमोर सर्वाधिक कुख्यात था। आज यह माना जाता है कि 1932-1933 के सोवियत अकाल में अनुमानतः 6 मिलियन लोगों की मौत हुई थी।[106] सोवियत संघ में आखिरी बड़ा अकाल वर्ष 1977 में पड़ा था जो कि भयंकर सूखे और सोवियत सरकार द्वारा अनाज भंडार के कुप्रबंधन के कारण पड़ा था।[107]
872 दिनों की लेनिनग्राद की घेराबंदी (1941-1944) के कारण सामान्य प्रयोग की वस्तुओं, पानी, ऊर्जा और खाद्य की आपूर्ति में हुए व्यवधान के कारण लेनिनग्राद क्षेत्र में अद्वितीय अकाल पड़ा. जिसके परिणाम स्वरूप एक मिलियन लोगों की मौत हुई। [108]
लैटिन अमेरिका में अकाल
[संपादित करें]कोलंबस के पूर्व के अमेरिकी लोगों ने अक्सर गंभीर खाद्य अल्पता एवं अकालों को झेला है।[109] 850 ई. के आसपास निरंतर सूखा एवं माया सभ्यता का पतन एक साथ घटित हुए एवं वन रैबिट का अकाल मैक्सिको की एक बड़ी महाविपत्ति थी।[110]
1877 -78 में ब्राजील का ग्रेनेड सेका (भयंकर सूखा) जोकि अब तक दर्ज किया गया ब्राजील का सबसे भयंकर सूखा है,[111] में लगभग पांच लाख लोगों की जान गयी थी।[112] 1915 का सूखा भी विनाशकारी था।[113]
इन्हें भी देखें
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- अकालों की सूची
- १९४३ का बंगाल का अकाल
- 1944 में डच अकाल
- ग्रेट लीप फॉरवर्ड
- होलोडोमोर (यूक्रेनी अकाल)
- इथियोपिया में अकाल
- 2010 सहेल अकाल
- मध्ययुगीन जनसांख्यिकी
- ग्रीष्मकालीन बिना वर्ष
पादलेख
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