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User:Yogiraj Jai Bhagwan Dhankhar

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As Yogiraj Jai Bhagwan Dhankhar; The word yogi is used to refer to both male and female ascetic practitioners of yoga and related meditative practices (i.e infinity of infinite). The Yogis are religious people. One who conquers his inner enemies like anger, greed, passion, ego, etc. The followers of Yoga are known as Yogi, Rishi-Munie, Sanyasi (i.e Atit bawa, Avdhut, Aughar, Jangam) Jogi (i.e Joginath, Giri, Raj guru, Acharya, Sarswati, Padhey/Upadhayay), Nathpanthi (i.e Sidh, Nath, Jin, Bharthari, etc.), Rawal (i.e Rawat), Goswami (i.e Gosain/Gosavi), Related ethnic groups- Brahmins, Sufi Saints, Sheikhs in south Asia & also a sub-sect of Jaat & Raj put sects in the north India. The governments of India and state governments both have classified the Yogis under Other Backward Classes since 1994. Yogis are vegetarians. Yogi Samaj explained that from eternity, every living being (soul) is in bondage of karmic atoms, that are accumulated by its own good or bad deeds. Under the influence of karma, the soul is habituated to seek pleasures in materialistic belongings and possessions. Which are the deep rooted causes of self-cantered violent thoughts, deeds, anger, hatred, greed, and such other vices. These result in accumulating more karma. Fasting is one of the main tools for practicing external austerity. It helps to keep the demands of the body under check and assists in the focus on the upliftment of the soul. Spiritually, it helps in melting away the bad karmas accumulated by an individual. Married practitioners aspire to likewise abstain from unconscious/harmful sexual behaviour, and to meditatively practice sexual yoga (as opposed to ego-cantered sexual release) with their partner, but must practice aware chastity with regard to others. Yogis were born as human beings but they have attained a state of perfection or enlightenment through meditation and self realization. Yogis are also known as Natha & Joginatha. Natha spent a part of their life by travelling around his nation preaching to the people the eternal truth. Yogi Samaj had a major influence in developing a system of philosophy and ethics that had a great impact on all aspects of Indian culture. The ultimate objective of his teaching is how one can attain the total freedom from the cycle of birth, life, pain, misery, and death, and achieve the permanent blissful state of one's self. This is also known as absolute freedom, or Moksha. Yogis have significantly influenced and contributed to ethical, political and economic spheres in India.

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"Yogiraj Jai Bhagwan Dhankhar"

            योगी इतिहास को देखें तो योगी एक जाति अथवा सम्प्रदाय नही वरन् एक प्रक्रिया है| योगी का तात्पर्य उस वैराग्य से तो कदापि नही है, जिसमें संसार एवं अपनो से भागने का प्रयास किया जाता है| इसका अभिष्ट है-' सुख दुख: से ऊपर उठकर परम् तत्व की प्राप्ति|'
            मानव जीवन तमस,राजस व सात्विक के आधार पर बढता है| योगी तमस तथा राजस से निकलकर सात्विक जीवन अपनाकर तप से तपाते हैं| तभी उनका शरीर अनंत चेतना को धारण करने में समर्थ होते हैं| कर्म,ग्यान व योग साधना का मार्ग अपनाने वाले परम् प्राचीन योगी समाज की सुदीर्घ अवधि में कितना कुछ समा गया होगा,कहना मुश्किल है| योगसाधक,सदाचार के आधार,आपदा(महामारी) से बचाने वाले,कथावाचक,गाथावाचक,धर्मोपदेशक तथा सांस्क्रतिक जीवन मूल्यों को सुद्रढ करने वाला योगी समाज शुरू से ही हिन्दुओ की विश्वास पद्धति एवं धार्मिक विचारधारा का नाम रहा है| धर्म-कर्म, ग्यान-ध्यान और योग साधना का मार्ग अपनाने वाले परम् प्राचीन रिशी-मुनि अर्थात योगी समाज की सुदीर्घ अवधि में कितना कुछ समा गया होगा, कहना मुश्किल है| सदियों से समाज व दुनियादारी से विरक्त, जंगल, पहाङ जैसे दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले योगी समाज की अपनी विशिष्ट संस्क्रति और परंपराऐं हैं|अर्थात उनके जीवन यापन के तरीके भी अलग रहे हैं|
            योगियों का विश्वास आदिनाथ महादेव शिव में तथा श्रद्धा आदिशक्ति महादेवी जगदम्बा में है| वे अपनी प्रार्थना में 'ॐ' अक्षर का प्रयोग करते हुए परमात्मा का स्मरण (जाप) करते हैं| इस प्रकार 'ॐ' परम् तत्व के आराध्य स्वरूप परमात्मा और साधक योगी के मध्य संसर्ग का माध्यम बनता है| ॐ योगी समाज का परमात्मा रूपी वह अमिट ध्वनिनाद है, जिसका क्षरण/विनाश नही होता| ये ॐ अर्थात ओम् तीन (अ, उ तथा म) अक्षरों से बना है| अ का अर्थ-आविर्भाव अर्थात उत्पन्न होना, उ का अर्थ-उठना अर्थात विकास और म का अर्थ-मौन अर्थात ब्रह्मलीन हो जाना है|एक योगी वे हैं जो अपना सब कुछ छोङकर अपने गुरू की शरण में ब्रह्मचारी रह कर योग एवं ध्यान साधना का पालन करते हुए अपने तन-मन पर नियंत्रण रखते हुए अपनी साधना को पूर्णता की ओर ले जाते है| वहीं दूसरे योगी परिवार में रहते हुए अपने मन को प्रभु के ध्यान केन्द्रित कर अपने पारिवारिक दायत वों को पूरा करते हुए त्याग व सयंमपूर्वक आदर्श जीवन व्यतीत करते हैं और जीवन के अभिष्ट लक्ष्यों (परहित साधन ही पुण्य है एवं दूसरों को कष्ट देना ही पाप है तथा परिवार अथवा समाज बिना व्यक्ति का अस्तित्व अनिश्चित सा है) को प्राप्त होते हैं|
             योग ही संपूर्ण जीवन की आधारशीला है| अक्सर देखने में आता है कि लोग योग का असली तात्पर्य नही समझ पा रहे हैं| उनके द्वारा शारीरिक क्रियाओं एवं शरीर को स्वस्थ रखे जाने को योग के नाम से परिभाषित किया जाता है| उनकी नजर में योग केवल व्यायाम मात्र है| जबकि केवल शरीर को पुष्ट करना मात्र योग नही है| अर्थात् यह तो उसका अर्धसत्य है| उसका पूर्ण सत्य तो ध्यान यानि आत्मानुभूति एवं आत्मचिंतन द्वारा मूल तत्व से साक्षात्कार होना है| अर्थात् जो वास्तव में है, उसको वैसा यथार्थ जान लेना है|  
             योगी इतिहास को देखें तो योगी केवल एक जाति अथवा समुदाय नही, एक प्रक्रिया है| जिसमें व्यक्ति को उस 'परम् तत्व' की अनुभूति होती है, जो कि जाँच-परख के दायरे से बाहर है| योगी समाज में 'भक्तियोग, ग्यानयोग और कर्मयोग' की जो त्रिवेणी निरन्तर प्रवाहित होती रहती है, उसे किसी एक काल अथवा किसी ऐतिहासिक व्यक्ति विशेष की शिक्शाओं का प्रतिफल नही कह सकते| वह तो धीरे-धीरे अनेक शताब्दियों में प्राकर्ति के साथ सामंजस्य स्थापित करने वाले विभिन्न धार्मिक एंव सामाजिक विचारों के समावेश से वर्तमान स्वरूप में विकसित हुई है|योग व्यक्ति को अग्यान (अशान्ति, अन्धकार, असत्य, जङता, ईर्ष्या-द्वेष आदि) से ग्यान (शान्ति, प्रकाश, सत्य, चैतन्य, सौह्यर्द आदि) की ओर ले जाता है| जिस प्रकार अग्नि में तपाने से सोना आदि धातुओं के मल नष्ट हो जाते है, ठीक उसी प्रकार योग से शारीरिक एवं मानसिक दोष दूर होते हैं| अर्थात् मन, वाणी और शरीर द्वारा अपने और समाज हित में किया गया धर्म -कर्म ही योग संस्क्रति का मूल है|
             परमात्मा और जीवात्मा के मध्य अग्यान्ता (माया) का आवरण ही वह पर्दा है जो परमात्मा के साक्षात्कार में बाधक है| इसे हटाने के लिए जीवन की धारा को यथा संभव धीरे-धीरे भौतिक जगत से आध्यात्म में लाने की जरूरत है| परन्तु इसका अर्थ यह तो कतई नही है कि वह कर्म करना ही छोङ दे| कर्म तो उसे करते ही रहना है, लेकिन कर्म के बन्धनों में नही फँसना है| क्योंकि बंधनों में फंसकर अर्थात् पदार्थ के प्रति आसक्ति रखने से वह पदार्थ का दास बनता जाता है| बुराई धन-वैभव की कमाई में नही है, अपितु बुराई इस क्षणभंगुर संपदा के अभिमान में डुबने और उससे मोह करने में मानी है| योगी समाज ने सांसारिक इच्छाओं, आवश्यकताओं, स्पर्धाओं आदि से उठकर आध्यात्मिक विकास को प्रमुखता देकर भी भौतिक अभ्युदय की कभी उपेक्षा नही की| इस प्रकार साधक योगी जीव भाव से उबर कर सदा आत्मभाव में स्थापित हो जाने के लिए प्रयत्नशील रहता है| 
            योगियों के अस्तित्व को तीन चरणों में देखा जा सकता है:- "पहला चरण" (1st Step);- जिसमें शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता तथा चरित्र विकास होता है| "दूसरा चरण" (2nd Step);- जिसमें शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता तथा चरित्र विकास की अक्शमताओं के साथ-साथ उनमें समाज प्रेम एवं परोपकार की भावना तथा आध्यात्मिक अक्शमताऐं विकसित होने लगती हैं| "तीसरा चरण"(3rd Step);- जिसमें योगी शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता तथा चरित्र निर्माण के बाद आध्यात्मिक उन्नति करते हुए अपनी प्रकर्ति की उत्क्रष्ट अक्शमता को पहचानना शुरू कर देते है| विशेषतः यम-नियम, ग्यान-ध्यान, योग-साधना आदि का आवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुँच जाते हैं कि उनको अन्य शक्यियों के साथ-साथ 'कामधेनु और कल्पव्रक्श' योग शक्तियाँ प्राप्त होती हैं| कामधेनु का अर्थ है,'कामनाऐं पूरी करने वाली शक्ति अर्थात इच्छा शक्ति' और कल्पव्रक्श अर्थात कल्पना शक्ति के द्वारा,' कल्पनाओं में इतनी शक्ति आ जाती है कि कल्पना करते ही पदार्थ की कल्पित मूर्ति बन जाती है|'
            योगी समाज के नियमों एवं सिद्धांतों के पालन द्वारा आपेक्शित जगत के साथ सामंजस्य परम् सत्ता की ओर अग्रसर होना है|योगी समाज के नियम*= (1) प्रतिदिन प्रभु चिंतन एवं प्रार्थना करना| (2) शरीर की ब्राम्हा व आन्तरिक शुध्दता को बनाए रखना| (3 तप एवं पवित्र कमाई करना तथा धन-संपदा आदि का संचय नही करना| (4) धर्म, समाज, संस्क्रति तथा पर्यावरण एवं प्रक्रति की रक्शा करना| (5) सत्य, अहिंसा, परोपकार तथा दया एवं अक्श्मा को धारण करना| (6) काम, क्रोध, हिंसा, नशा, लोभ, स्वार्थ, झूठ, चोरी, निंदा, पक्शपात, छुआछात आदि बुराईयों बचना| (7) देह त्यागने पर परम् सिद्ध योगी के लिए समाधि और ग्रहस्थ योगी के लिए दाह-संस्कार का सिद्धांत|
            नाथ पंथ के संस्थापक गुरू गौरक्ष नाथ संपूर्ण योगी समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले आध्यात्मिक पुरूष तथा राष्ट्र की दिशा एवं दशा तय करने वाले व्यक्तितत्व का नाम है| उन्होने चरित्र निर्माण एवं मानवीय गुणों के विकास तथा जीवन यापन के लिए सरल मार्ग को अपनाने पर जोर थिया| उनका नाम राष्ट्रीय सुधारकर्त्ताओं में सम्मान के साथ लिया जाता है|