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पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/२०

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तीसरा प्रस्ताव


विद्यार्थियों को, जो प्रतिदिन, प्रतिक्षण इनके दरस-परस से अपना जन्म सफल करते हैं। सरस्वती भी धन्य है, जो इनके मुख-कमल के संपर्क का सुखानुभव करती हुई ऐसे महात्मा के प्रसन्न, गंभीर और विमल मन-मानस मे राजहंसी के समान वास करती है, जहाँ से काव्य, कोप, अलंकार, तर्क आदि अनेक विद्या निकल-निकल नदी के समान प्रवाह-रूप में बहती छात्र-मंडली का कायिक और मानसिक दोनों पाप धोए देती है। न केवल विद्या ही के कारण इनकी सब कोई प्रशंसा करते थे और इनके बड़े मोतकिद हो गए थे, किंतु अनेक असाधारण लोकोत्तर गुणों से भी। शांति और क्षमा के यह आधार थे, तृष्णालता-गहन-वन के काटने को मानो कुठार थे अज्ञान-तिमिर के हटाने को सहस्रांशु थे; हठ और दुराग्रह आदि महाक्रूर ग्रह के अस्ताचल थे; उदार भाव के उदयगिरि थे, क्षमा और उपशम-महावृक्ष के मूल थे; धर्म की ध्वजा, सत्पथ के दिखलानेवाले, शील के सागर, सौजन्य-सुमन के कुसुमाकर थे। किबहुना, हीराचंद के तो पंडितजी सर्वस्व ही थे। उस प्रांत के छोटे-बड़े सभी ताल्लुकेदार इन्हें मानते थे, और प्रतिमास असंख्य धन इनकी भेट भेज देते थे। पंडितजी उस धन में से केवल साधारण भोजन और मोटा-मोटा कपड़ा पहन लेने के सिवा सब-का-सब अपने पास पढ़नेवाले विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति में खर्च कर देते थे। लड़का-बाला इनके कोई न था; पर इस बात का