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लेनिनवाद

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लेनिन

लेनिनवाद साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग का मार्क्सवाद है। विचारधारा के स्तर पर यह सर्वहारा क्रांति की और विशेषकर सर्वहारा की तानाशाही का सिद्धांत और कार्यनीति है।[1] लेनिन ने उत्पादन की पूँजीवादी विधि के उस विश्लेषण को जारी रखा जिसे मार्क्स ने पूंजी में किया था और साम्राज्यवाद की परिस्थितियों में आर्थिक तथा राजनीतिक विकास के नियमों को उजागर किया। लेनिनवाद की सृजनशील आत्मा समाजवादी क्रांति के उनके सिद्धांत में व्यक्त हुई है। लेनिन ने प्रतिपादित किया कि नयी अवस्थाओं में समाजवाद पहले एक या कुछ देशों में विजयी हो सकता है। उन्होंने नेतृत्वकारी तथा संगठनकारी शक्ति के रूप में सर्वहारा वर्ग की दल विषयक मत को प्रतिपादन किया जिसके बिना सर्वहारा अधिनायकत्व की उपलब्धि तथा साम्यवादी समाज का निर्माण असम्भव है।[2]

वस्तुतः लेनिनवाद एक लेनिन के बाद की वैचारिक परिघटना है। लेनिन का देहांत 1924 में हुआ। अपने जीवन में उन्होंने ख़ुद न तो 'लेनिनवाद' शब्द का प्रयोग किया, और न ही उसके प्रयोग को प्रोत्साहित किया। वे अपने विचारों को मार्क्सवादी, समाजवादी और कम्युनिस्ट श्रेणियों में रख कर व्यक्त करते थे। लेनिन के इस रवैये के विपरीत उनके जीवन के अंतिम दौर में (1920 से 1924 के बीच) सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष कम्युनिस्ट नेताओं और सिद्धांतकारों ने लेनिन के प्रमुख सिद्धांतों, रणनीतियों और कार्यनीतियों के इर्द-गिर्द विभिन्न राजनीतिक और रणनीतिक परिप्रेक्ष्य विकसित किये जिनके आधार पर आगे चल कर लेनिनवाद का विन्यास तैयार हुआ। इन नेताओं में निकोलाई बुखारिन, लियोन ट्रॉट्स्की, जोसेफ़ स्तालिन, ग्रेगरी ज़िनोवीव और लेव कामेनेव प्रमुख थे। उत्तर-लेनिन अवधि में हुए सत्ता-संघर्ष में स्तालिन की जीत हुई जिसके परिणामस्वरूप बाकी नेताओं को जान से हाथ धोना पड़ा। अतः आज लेनिनवाद का जो रूप हमारे सामने है, उस पर प्रमुख तौर पर स्तालिन की व्याख्याओं की छाप है। स्तालिन ने 1934 में दो पुस्तकें लिखीं : "फ़ाउंडेशंस ऑफ़ लेनिनिज्म" और "प्रॉब्लम्स ऑफ़ लेनिनिज्म" जो लेनिनवाद की अधिकारिक समझ का प्रतिनिधित्व करती हैं। अगर स्तालिन द्वारा दी गयी परिभाषा मानें तो लेनिनवाद साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग का मार्क्सवाद होने के साथ-साथ सर्वहारा की तानाशाही की सैद्धांतिकी और कार्यनीति है। स्पष्ट है कि स्तालिन इस परिभाषा के द्वारा लेनिनवाद को एक सार्वभौम सिद्धान्त की तरह पेश करना चाहते थे। उन्हें अपने इस लक्ष्य में जो सफलता मिली, उसके पीछे लेनिन द्वारा सोवियत क्रांति के बाद 1919 में स्थापित कोमिंटर्न (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल) की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

स्तालिन की सफलता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनिया के अधिकतर मार्क्सवादी कार्यकर्त्ता और नेता मार्क्सवाद को लेनिनवाद के बिना अपूर्ण समझते हैं। दरअसल, लेनिनवाद क्लासिकल मार्क्सवाद में कुछ नयी बातें जोड़ता है। पहली बात तो यह है कि वह केवल क्रांतिकारी सर्वहारा पर निर्भर रहने के बजाय क्रांतिकारी मेहनतकशों यानी मज़दूरों और किसानों के गठजोड़ की मुख्य क्रांतिकारी शक्ति के रूप में शिनाख्त करता है। अपने इस योगदान के कारण लेनिनवाद, मार्क्सवाद को विकसित औद्योगिक पूँँजीवाद की सीमाओं से निकाल कर अल्पविकसित और अर्ध-औपनिवेशिक देशों के राष्ट्रीय मुक्ति संग्रामों के लिए उपयोगी विचारधारा बना देता है। लेनिनवाद ऐसे सभी देशों के कम्युनिस्टों और अन्य रैडिकल तत्त्वों के लिए क्रांति करने की व्यावहारिक विधि का प्रावधान बन कर उभरा है। लेनिनवाद के इस आयाम के महत्त्व का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मजदूरों और किसानों के क्रांतिकारी मोर्चे की अवधारणा चीन, वियतनाम, कोरिया और लातीनी अमेरिका में कम्युनिस्ट क्रांति को अग्रगति देने में सफल रही है। जिन देशों में कम्युनिस्ट क्रांतियाँ नहीं भी हो पायीं (जैसे भारत), वहाँ के कम्युनिस्ट भी लेनिनवाद की इसी केंद्रीय थीसिस पर अमल करते हैं।

लेनिनवाद के मुख्य सिद्धान्त

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लेनिनवाद क्रांतिकारी राजनीतिक कार्रवाई को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है, और इस कार्रवाई की बागडोर उसने पेशेवर क्रांतिकारियों द्वारा संचालित और लोकतांत्रिक केंद्रवाद पर आधारित अनुशासित कम्युनिस्ट पार्टी को थमायी है। लेनिनवाद की मान्यता है कि मज़दूर वर्ग केवल अपने आर्थिक संघर्षों और अन्य राजनीतिक गतिविधियों के चलते स्वतःस्फूर्त ढंग से क्रांतिकारी नहीं बन सकता। उसके लिए क्रांतिकारी चेतना की वाहक यह पार्टी ही बनेगी। लेनिनवाद का यह दूसरा पहलू भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। कुछ विद्वान तो यह भी मानते हैं कि पार्टी-संगठन का उसूल ही लेनिनवाद का मर्म है और इसी में एक पार्टी की हूकूमत वाले राज्य की संकल्पना निहित है। बीसवीं सदी के एकदम शुरुआत में रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी के भीतर संघर्ष करते हुए लेनिन ने रूसी परिस्थिति को जर्मन परिस्थिति से अलग दिखाते हुए एक जन-आधारित पार्टी के बजाय गोपनीय राजनीति में माहिर एक छोटी और अनुशासित कार्यकर्त्ता आधारित पार्टी बनाने की तजवीज़ की थी। पेशेवर सर्वहारा क्रांतिकारियों की यह पार्टी उस क्रांतिकारी-लोकतांत्रिक रुझान की वाहक होनी थी जिसे लेनिन की क्रांति-पूर्व रचनाओं, विशेषकर 'स्टेट ऐंड रेवोल्यूशन' में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, हालाँकि इस रचना में पार्टी के सवाल पर कोई चर्चा नहीं है। लेनिन का पार्टी संबंधी चिंतन 1918 से 1922 के बीच फिर से सामने आया जब नवजात सोवियत राज्य आर्थिक घेरेबंदी, विदेशी आक्रमण और गृह युद्ध से जूझ रहा था। इस दौरान लेनिन की पार्टी का जो स्वरूप उभरा, उसके कई पहलू पहले वाले क्रांतिकारी- लोकतांत्रिक रुझान के अनुकूल नहीं थे।

पार्टी-संगठन संबंधी लेनिनवाद के निर्देशों को संक्षेप में इस प्रकार देखा जा सकता है :

  • मजदूर वर्ग की पार्टी को एक क्रांतिकारी मार्क्सवादी कार्यक्रम पर आधारित होना चाहिए जिस पर अमल करते समय ध्यान रखना होगा कि समाजवाद के लिए संघर्ष में प्रगति हो रही है या नहीं;
  • पार्टी की सदस्यता क्रांतिकारी कार्यक्रम से पूर्णतः सहमत कार्यकर्त्ताओं को ही दी जाएगी और वे ही पार्टी पर समग्र रूप से नियंत्रण रखेंगे;
  • क्रांतिकारी कार्यक्रम का विकास करते हुए उसका कार्यांवयन करने की सामूहिक जिम्मेदारी कार्यकर्त्ताओं की ही होगी;
  • अगर हुकूमत के दमन के कारण पार्टी को भूमिगत या अर्ध-भूमिगत स्थितियों में काम नहीं करना पड़ रहा है, तो पार्टी खुले रूप से काम करते हुए लोकतांत्रिक गतिविधियाँ करेगी और ऊपर से नीचे चुनाव के ज़रिये उसके पदाधिकारी तय होंगे;
  • प्रत्येक पार्टी इकाई लोकतांत्रिक रूप से प्रतिनिधियों को चुनेगी जो पार्टी की सर्वोच्च निर्णयकारी संस्था 'कांग्रेस' में भाग लेंगे जिसका आयोजन हर दो साल के अंतराल पर होगा;
  • कांग्रेस के आयोजन से पहले सदस्यों के लिए अहम समझे जाने वाले सभी सवालों पर पूरी पार्टी में खुल कर निस्संकोच विचार-विमर्श करना होगा और इसके लिए चर्चा-पत्र तैयार करने होंगे और विशेष बैठकें करनी होंगी;
  • दो कांग्रेसों के बीच की अवधि में क्रांतिकारी कार्यक्रम और कांग्रेस के निर्णयों के आधार पर पार्टी का संचालन करने के लिए कांग्रेस के प्रति जवाबदेह एक केंद्रीय समिति गठित करनी होगी;
  • पार्टी के रोज़मर्रा संचालन के लिए केंद्रीय समिति विभिन्न स्तरों पर कमेटियाँ गठित करेगी जिनका काम सभी स्थानीय इकाइयों और सदस्यों को संगठन के अनुभवों, गतिविधियों, और निर्णयों से अवगत कराते रहना होगा;
  • क्रांतिकारी कार्यक्रम पर व्यापक एकता होते हुए भी पार्टी के भीतर कार्यनीतिक और व्यावहारिक प्रश्नों पर मतभेद हो सकते हैं जिनके भीतर पार्टी के मंचों पर खुल कर बहस चलानी होगी ताकि पार्टी-कार्यक्रम का विकास हो सके और उसके संबंध में राजनीतिक स्पष्टता हासिल हो सके;
  • इन मतभेदों को व्यक्त करने के लिए समय, स्थान और हालात का ध्यान रखना होगा;
  • सभी सदस्यों को पूरी पार्टी के सामने अपने विचारों को रखने और उन पर बहस का आह्वान करने का मौका होगा;
  • उन्हें अपने विचारों के इर्द-गिर्द समूह बनाने या मंच बनाने का भी अधिकार होगा;
  • सभी सवालों पर अंतिम निर्णय बहुमत तय करने वाले मतदान के द्वारा होगा; एक बार फ़ैसला हो जाने पर अल्पमत को उस पर निष्ठापूर्वक अमल करना होगा;
  • इस तरह लागू की गयी किसी भी नीति की सफलता, विफलता या आंशिक सफलता से पूरी पार्टी सबक सीखने के लिए तैयार रहेगी;
  • स्थानीय इकाइयाँ पार्टी-कार्यक्रम के तहत कार्यरत रहेंगी और सारे निर्णयों का पालन करेंगी, और इसी ढाँचे के तहत उन्हें स्थानीय नेतृत्व के लोकतांत्रिक निर्देशों के तहत काम करना होगा। 

लेनिनवाद पार्टी के इस ढाँचे को लोकतांत्रिक केंद्रवाद की संज्ञा देता है और दुनिया की अधिकतर कम्युनिस्ट पार्टियाँ इसी का पालन करती हैं।

लेनिनवाद की आलोचना

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लेकिन पहली दृष्टि में साफ-सुथरा और तर्कसंगत लगने वाला यह ढाँचा कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर और बाहर काफी विवादित रहा है। लेनिन की समकालीन सिद्धांतकार रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग ने भी इसकी आलोचना की थी, हालाँकि वे बोल्शेविकों की आम कार्यदिशा से सहमत थीं। रोज़ा, लेनिन के इस सूत्रीकरण से सहमत नहीं थीं कि मजदूर वर्ग में स्वतःस्फूर्त क्रांतिकारी चेतना विकसित करने की क्षमता नहीं होती। इस पार्टी-ढाँचे के आलोचकों का आरोप है कि इसके भीतर लोकतंत्र पर हमेशा केंद्रवाद हावी रहता है इसलिए यह बुनियादी तौर पर अलोकतांत्रिक होता है। ऐसे संगठन में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के नाम पर एक पार्टी की तानाशाही स्थापित करने का जबरदस्त रुझान मौजूद रहता है। अंतिम विश्लेषण में ऐसी पार्टी मजदूर वर्ग के हवाले से जो हुकूमत करती है उसमें वह लोकतांत्रिक केंद्रवाद को पार्टी-संगठन की सीमाओं से परे जा कर सामाजिक संगठन के उसूल में बदल देती है।

रूस में क्रांति की सफलता और उसके टिके रहने को लेनिन विश्व-क्रांति की गतिशीलता के साथ जोड़ कर देखते थे। इसलिए उन्होंने दुनिया भर में कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थापना और उनकी राजनीति के मार्गदर्शन के लिए कोमिंटर्न का गठन किया था। कोमिंटर्न ने ऐसा किया भी। 1921 में स्थापित चीनी कम्युनिस्ट पार्टी उसकी मदद के बिना गठित नहीं की जा सकती थी। लेकिन लेनिन के बाद कोमिंटर्न की भूमिका बदलती चली गयी। स्तालिन की देख-रेख में विश्व-क्रांति के हित सोवियत संघ की भू-राजनीतिक रणनीतियों के मातहत होते चले गये। दुनिया के दूसरे देशों में क्रांति की सम्भावनाओं पर स्तालिन द्वारा परिभाषित लेनिनवाद का मॉडल थोपा जाने लगा। चीन की कम्युनिस्ट क्रांति तभी सफलता के रास्ते पर चल पायी, जब उसने कोमिंटर्न के माध्यम से भेजे गये स्तालिन के आदेशों को मानने से इनकार कर दिया। माओ त्से-तुंग ने लेनिनवाद को मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार किया, पर वे लेनिनवाद की स्तालिनीय व्याख्या से दूर होते चले गये। एक स्थिति तो यह आयी थी कि माओ ने कोमिंटर्न के प्रतिनिधियों से मिलने तक से इनकार कर दिया था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि 1949 में जिस समय माओ चीन लोक गणराज्य की स्थापना का ऐलान कर रहे थे, उस समय भी सोवियत संघ ने कुओमिंगतांग और उसके नेता कम्युनिस्ट विरोधी नेता च्यांग काई शेक के साथ संधि कर रखी थी। माओ ने बाद में स्तालिन की आलोचना करते हुए कहा भी कि वे क्रांति को 'फर्जी' मानते थे।

स्तालिनीय लेनिनवाद की आलोचना के कुछ अन्य परिप्रेक्ष्य भी हैं जिनमें युरोकम्युनिज्म का रुख  उल्लेखनीय है। मार्क्सवाद का यह संस्करण मानता है कि लेनिनवाद मुख्यतः रूसी परिस्थितियों की देन होने के कारण युरोपीय सर्वहारा के संघर्ष के लिए  प्रासंगिक नहीं है। इसके पैरोकार मानते हैं कि पूँजीवादी राज्य के हिंसक तख्तापलट की राजनीति करने की बजाय युरोपीय सर्वहारा अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पूँजीवादी राज्य-तंत्र में भागीदारी करके लाभ उठा सकता है।

सन्दर्भ

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  • 1. एम. लीबमैन (1980), लेनिनिज़म अंडर लेनिन , मर्लिन प्रेस, लंदन, 1980
  • 2. जे.वी. स्तालिन (1972), 'फ़ाउंडेशन ऑफ़ लेनिनिज़म' और 'प्रॉब्लम्स ऑफ़ लेनिनिज़म', बी. फ़्रैंकलिन (सम्पा.), द इसेंशियल स्तालिन, 1905-1952, एंकर बुक्स, न्यूयॉर्क.
  • 3. पी. ल’ब्लांक (1903), लेनिन ऐंड द रेवोल्यूशनरी पार्टी, ह्यूमेनिटी बुक्स, एमहर्स्ट, एनवाई।
  1. लेनिनवाद के बारे में, जोसेफ स्तालिन (अनुवाद और संपादन- नरेश 'नदीम'), प्रकाशन संस्थान, पृष्ठ- ९९, ISBN ८१-७७१४-२२९-१
  2. दर्शनकोश, प्रगति प्रकाशन, मास्को, १९८0, पृष्ठ-५५४ ISBN ५-0१000९0७-२

इन्हें भी देखें

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