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मेटरनिख

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मेटरनिख

मेटरनिख (Prince Klemens Wenzel von Metternich (जर्मन में पूरा नाम : Klemens Wenzel Nepomuk Lothar, Fürst von Metternich-Winneburg zu Beilstein, अंग्रेजी रूपान्तरण : Clement Wenceslas Lothar von Metternich-Winneburg-Beilstein; 15 मई 1773 – 11 जून 1858) राजनेता व राजनयज्ञ था। वह 1809 से 1848 तक आस्ट्रियाई साम्राज्य का विदेश मंत्री रहा। वह अपने समय का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे प्रतिभाशाली राजनयिक था।

नेपोलियन की वाटरलू पराजय के बाद मेटरनिख यूरोप की राजनीति का सर्वेसर्वा बन गया। उसने यूरोपीय राजनीति में इतनी प्रमुख भूमिका निभाई कि 1815 से 1848 तक के यूरोपीय इतिहास का काल 'मेटरनिख युग’ के नाम से प्रसिद्ध है। मेटरनिख ने अपने प्रधानमन्त्रितत्व-काल में प्रतिक्रया और अनुदारीता का अनुकरण करने की नीति अपनाई और उसके प्रभाव के कारण आस्ट्रिया का साम्राज्य यूरोप में अत्यन्त महत्वपूर्ण बन गया।

मेटरनिख का जन्म मई 1773 में आस्ट्रिया के काबलेज नगर में हुआ था। वह कुलीन श्रेणी के खानदान का व्यक्ति था। अपने विश्वविद्यालय के शिक्षणकाल में उसने फ्रांस की क्रान्ति के फलस्वरूप भागे हुए कुलीनों की दुःख गाथा को सुना था तथा उसी समय से वह क्रांतिकारी भावनाओं का घोर शत्रु बन गया था। उसका पिता पवित्र रोमन साम्राज्य का उच्चाधिकारी और जर्मनी का जागीरदार था। राइन नदी के किनारे पश्चिमी जर्मनी में उसके पिता की एक बड़ी जागीर थी। जब क्रांति के दौरान नेपोलियन ने इस जागीर पर अधिकार कर लिया तो मैटरनिक विद्यार्थी जीवन में ही क्रांति का विरोधी एवं नैपोलियन का कट्टर शत्रु बन गया।

शिक्षा समाप्त करने के बाद 1795 में उसका विवाह आस्ट्रिया के चांसलर प्रिंस कालिट्स की पौत्री के साथ हुआ। इस विवाह से उसकी राजनीतिक और सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। सन् 1801 से 1806 तक उसने विभिन्न देशों में राजदूत के पद पर कार्य किया और वह इन देशों के शासकों व राजनीतिज्ञों के सम्पर्क में आया। वह सन् 1809 में आस्ट्रिया का चांसलर (प्रधानमन्त्री) बन गया और 1848 तक उसी पद पर कार्य करता रहा। वह आगे भी आस्ट्रिया का प्रधानमन्त्री बना रहता यदि आस्ट्रिया में क्रान्तिकारी भावनाओं का प्रसार न हुआ होता। 1848 ई. में समाजवादियों, उदारवादियों और राष्ट्रवादियों ने वियना में मैटरनिक का राजमहल घेर लिया तो वह गुप्त रूप से इंग्लैंड भाग गया। कुछ साल बाद वह वापस वियना आया जहाँ 1859 में उसकी मृत्यु हो गई।

मैटरनिक क्रांति का कट्टर शत्रु था। उसके अनुसार क्रांति एक भीषण संक्रामक रोग थी और इस संक्रामक रोग की शीघ्र रोकथाम करनी चाहिए। वह राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था। वह निरंकुश शासन का समर्थक था। वह यथास्थिति (status quo) को कायम रखने का पक्षधर था।

मैटरनिक व्यवस्था और उसकी नीति मुख्यतः आस्ट्रियाई आवश्यकता पर आधारित थी। वस्तुतः विभिन्न जाति, भाषा, धर्म, परम्परा के लोग आस्ट्रिया में रहते थे। ऐसे साम्राज्य में राष्ट्रवादी भावना का उदय राज्य को टुकड़ों में बाँट देता है। ऐसी स्थिति में मैटरनिक की नीति किसी भी कीमत पर यथास्थिति बनाए रखने तथा उभरती हुई राष्ट्रवादी भावना को कुचल डालने की थी।

मैटरनिक ने ऑस्ट्रिया में उदारवादी विचारधारा के प्रवेश मार्ग को अवरूद्ध कर दिया। इसके तहत् उसने विचार स्वातंत्र्य पर अंकुश लगाया। उदारवादी विचारधारा वाली पुस्तकों को साम्राज्य में घुसने पर रोक लगाई। आस्ट्रियावासियों को विदेश जाने से रोक दिया। विश्वविद्यालय के शिक्षकों ओर छात्रों पर जासूसों के द्वारा कड़ी नजर रखी जाने लगी। इस तरीके से मैटरनिक ने आस्ट्रिया की राष्ट्रीयता अौर क्रांति की भावनाओं से अलग रखा।

मैटरनिक इस बात को भली-भांति समझता था कि उसका आस्ट्रिया तभी अक्षुण्ण रह सकता है जब यूरोप के अन्य क्षेत्रों में भी इस तरह की व्यवस्था लागू की जाए। इसी संदर्भ के उसने जर्मनी में संघ का निर्माण कर उदारवादी आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया। कार्ल्सवाद की घोषणा कर उसने राष्ट्रवादी संस्थानों पर प्रतिबंध लगाया, समाचार पत्रों पर नियंत्रण लगाया और उदारवाद के प्रचार पर रोक लगाई। जब जर्मनी में 1830 ई. में इन प्रतिबन्धों का विरोध हुआ तो मैटरनिक ने मित्र देशों की सहायता से उसे कुचल डाला। इसी प्रकार इटली में भी राष्ट्रवादी/उदारवादी आंदोलन को दबाया गया।

1815-28 तक मैटरनिक की सफलता का काल था। इस काल में प्रगतिशील विचारधारा अवरूद्ध रही और प्रतिक्रियावादी विचारधारा की विजय हुई। इसी संदर्भ में यह कहा गया कि "एक क्लांत और भीरू पीढ़ी के लिए मैटरनिक एक उपयुक्त व्यक्ति था।"

मेटरमनिख युग

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फ्रांस की क्रांति और नेपोलियन के युद्धों के पश्चात् यूरोप के राजनीतिक पटल पर मैटरनिक का उदय एक नए युग का सूचक था जिसे सामान्यतः मैटरनिक युगकहा जाता है। यह युग 1815-1848 तक रहा और इस काल में उसने यूरोप की राजनीति को अपने तरीके से संचालित किया। प्रतिक्रियावादी और प्रगतिशील विचारधाराओं में जबर्दस्त संघर्ष इस युग की विशेषता थी। एक तरफ राष्ट्रवाद प्रजातंत्र की भावना तो दूसरी तरफ अनुदारतावाद और प्रतिक्रियावाद की भावना थी। मैटरनिक प्रतिक्रियावादी विचारधारा का समर्थक था उसकी सारी नीति का सूत्रवाक्य था- "शासन करो और कोई परिवर्तन न होने दो।" उसने अपनी प्रक्रियावादी नीति को अंजाम देने के लिए जिन तौर-तरीकों का इस्तेमाल किया उसे 'मैटरनिक व्यवस्था' कहा गया। इस व्यवस्था का उद्देश्य यूरोप में संतुलन कायम करना था। वह संतुलन जिसे फ्रांस की क्रांति और नेपोलियन के युद्धों ने भंग कर दिया था।

मेटरनिख ने क्रांतिकारी विचारों को आस्ट्रिया में पनपने न देने का दृढ़ संकल्प लिया हुआ था। इन्हीं क्रान्तिकारी भावनाओं के भड़कने पर वह पतन को प्राप्त हुआ। उसके विचार में क्रान्ति एक बीमारी थी जिसके भड़कने पर उसका कोई भी निदान नहीं रह जाता है। अतः इस बीमारी को उग्र रूप धारण करने से पहले ही जैसे ही इसके लक्षण दिखाई दे, दबा देना चाहिये। यह एक ज्वालामुखी होता है, अतः इसके फटने का धमाका होने से पूर्व ही इससे रक्षा कर लेनी चाहिए। राजा को वह ईश्वर का दूत मानता था और इस ईश्वर के प्रतिनिधि को जनता के भाग्य निपटारे का हर अधिकार प्राप्त होता है एवं वह जनता के प्रति कभी भी उत्तरदायी नहीं होता। इन सिद्धान्तों का वह मन से समर्थक था एवं अपने जीवनपर्यन्त इन सिद्धान्तों को व्यवहार में लाया।

नैपोलियन का विवाह आस्ट्रिया की आर्कडचेज मैरी लूसी के साथ कराने में मेटनिख की भूमिका थी।

मेटरनिख एक महान राजनयज्ञ था। वह असाधारण प्रतिभा का धनी था। नेपोलियन सेनापति को पराजित करने में आस्ट्रिया (आस्ट्रिया या हंगरी) ने महत्वपूर्ण भाग लिया था, अतः यूरोप से पुनर्निर्माण के मामलों को तय करने के लिए 1815 में वियना में यूरोपीय राष्ट्रों का सम्मेलन हुआ था और आष्ट्रियन चांसलर मेटरनिख ने अपनी विलक्षण राजनयिक प्रतिभा से सबसे प्रभावित किया था। यह मेटररिख ही था जिससे आस्ट्रिया को इतना शक्तिशाली बना दिया था कि यूरोप में पुनः उसका वर्चस्व स्थापित हो गया। आस्ट्रिया-हंगरी पर 1792 से 1835 तक फ्रांसिस प्रथम और 1835 से 1848 तक फर्डिनेण्ड प्रथम ने राज्य किया। सम्पूर्ण योरोप में आस्ट्रिया ही एक ऐसा राज्य था जिस पर 1789 की फ्रांसीसी क्रांति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। साम्राज्य भर में विशेषाधिकारयुक्त कुलीनों और पादरियों का शासन एकदम निरंकुश रहा। किसी प्रकार के उदार विचारों का प्रचार नहीं हो सकता था।

जहाँ नेपोलियन का युग अस्त्र-शस्त्र का युग था वहाँ मेटरनिख युग का राज्य या मंत्री का युग था। मेटरनिख अपने युग का सबसे प्रतिभाशाली राजनीतिज्ञ था। नेपोलियन के पतन और यूरोपियन व्यवस्था के संगठन में उसका प्रमुख हाथ था। उस युग के लगभग सभी शासक मेटररिख के प्रभावित थे। मध्य और पूर्वी यूरोप राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय विधान मेटरनिख की नीति के अनुसार ही चलते थे। जर्मनी, आस्ट्रिया और इटली उसकी ही छत्रछाया में थे। वास्तव में जिस तरह नेपोलियन ने सम्पूर्ण यूरोप पर 15 वर्ष तक अपनी धाक जमाए रखी, उसी तरह मेटरनिख भी लगभग 40 साल तक यूरोप की राजनीतिक प्रगति पर अपना नियन्त्रण रखे रहा। वह बड़ा ही अहंकारी व्यक्ति था जिसकी धारणा थी कि संसार का क्रम उसी के सहारे चल रहा है। वह कहा करता था- "मेरी स्थिति में वह विलक्षण बात है कि जहां भी मैं होता हूं सबकी आशाएं, सबकी आखें वहीं लगी रहती हैं। क्या कारण है कि असंख्य लोगों में केवल मैं ही विचार करता हूँ जबकि अन्य व्यक्ति कुछ नहीं सोचते; केवल मैं ही कार्य करता हूँ जबकि अन्य लोग कुछ भी नहीं करते; और मैं ही लिखता हूँ क्योंकि दूसरे इस योग्य नहीं हैं।" मेटररिख का विश्वास था कि उसकी मृत्यु होने पर उसके रिक्त स्थान की पूर्ति कभी नहीं की जा सकेगी।

मेटरनिख क्रान्तिकारी भावनाओं का कट्टर शत्रु था। फ्रांस की क्रान्ति के दो महत्वपूर्ण सिद्धान्तों, राष्ट्रीयता और प्रजातन्त्र, को वह 'बहुत भयानक रोग' समझता था। वह कहा करता था कि क्रान्ति के भयंकर रोग को शीघ्र ही रोकना चाहिए, अन्यथा वह अत्यन्त शीघ्रता से फैल कर भीषण रूप धारण कर लेगा जिससे सम्पूर्ण यूरोप नष्ट हो जायेगा।

मेटरनिख प्रायः कहा करता था- "क्रान्ति एक भयानक और विशाल दैत्य की भांति है जो समस्त यूरोप की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को निगल सकती है।" मेटरनिख की दृष्टि में, "क्रान्ति एक सड़े हुए दुर्गन्धयुक्त मांस के टुकड़े के समान थी जिसको भस्म करने के लिए एक अत्यन्त गरम और लाल लोहे की आवश्यकता होती है।" मेटरनिख को क्रान्ति से अत्यन्त चिढ़ थी। उसका राजनय इस दिशा में था कि सम्पूर्ण यूरोप में क्रान्ति से पूर्व की स्थिति पुनः उत्पन्न करके पुरातन राजनीतिक व्यवस्था की जाये।

मेटरनिख आस्ट्रिया साम्राज्य की सुरक्षा करना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझता था। यह तभी सम्भव था जब फ्रांसीसी क्रान्ति द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को कुचल दिया जाये। मेटरनिख जानता था कि आस्ट्रिया का साम्राज्य अनेक जातियों का जमघट है और ऐसे साम्राज्य का शासन राष्ट्रीयता के सिद्धान्तों के आधार पर नहीं चलाया जा सकता। उसे यह कभी बर्दाश्त नहीं था कि सर्वसाधारण जनता राजनीतिक अधिकार प्राप्त करे और देश के शासन-संचालन में लाग ले, अतः आस्ट्रियन साम्राज्य की क्रान्ति की लहरों से बचाने के लिए मेटरनिख ने एक ऐसी पद्धति का सूत्रपात किया जिसे ‘मेटरनिख पद्धति' (System of Matternich) कहा जाता है। मेटरनिख ने अपनी नीति को सफल बनाने के लिए शक्ति का नहीं वरन् राजनयिक और राजनीतिक दबाव का सहारा लिया। उसकी यह प्रणाली तत्कालीन यूरोपीय व्यवस्था से भिन्न थी, इसलिए उसकी नीति को उसके नाम पर ‘मेटरनिख प्रणाली’ का नाम दिया गया। इस मेटरनिख प्रणाली के दो स्पष्ट रूप थे-

(१) आस्ट्रिया में एक ऐसी व्यवस्था कायम की जाए जिसमें क्रान्ति के विचारों का प्रचार असम्भव हो जाये। चूंकि जर्मनी और इटली पर आस्ट्रिया का प्रभाव था, अतः वहां भी क्रान्तिकारी विचारों का प्रचार रोका जाये,
(२) यूरोप के किसी भाग में क्रान्ति के सिद्धान्तों का प्रचार न हो। प्रगतिशील प्रवृत्तियां कहीं भी सिर उठायें तो उन्हें कुचल दिया जाये। इस उद्देश्य की लिए मेटरनिख ने वियना कांग्रेस में यूरोपीय व्यवस्था की स्थापना कराई। वास्तव में यह व्यवस्था मेटरनिख पद्धति का एक अभिन्न अंग थी।

मेटरनिख ने अपने प्रधानमन्त्रितत्व-काल में प्रतिक्रया और अनुदारीता का अनुकरण करने की नीति अपनाई और उसके प्रभाव के कारण आस्ट्रिया का साम्राज्य यूरोप में अत्यन्त महत्वपूर्ण बन गया। अपनी नीति की व्याख्या करते हुए उसने एक बार इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री पामर्स्टन को लिखा था कि "हम विरोधात्मक नीति इसलिए अपना रहे हैं कि हमें दमनकारी नीति अपनाने के लिए बेबस न होना पड़े। हमारी यही निश्चित धारणा है कि सुधार की मांगों को स्वीकार करना राज्य के लिए घातक होगा।"

मेटरनिख का विश्वास था कि गृह-नीति और विदेश-नीति को पृथक्-पृथक् नहीं देखा जा सकता। एक देश की घटनाओं का दूसरे देशों पर प्रभाव पड़ता है। अतः किसी देश में घटित घटनाओं को कोई देश दर्शक की भांति नहीं देख सकता। उसको दबाने के लिए राज्यों को सम्मिलित रूप से हस्तक्षेप करना चाहिये।

सर्वप्रथम मेटरनिख ने अपनी व्यवस्था को अपने ही देश में लागू किया। 1815 से 1818 तक वह आस्ट्रिया का सर्वशक्तिशाली प्रधानमन्त्री रहा। इस अवधि में आस्ट्रिया में दो सम्राट हुए- प्रथम फ्रांसिस (1835 ई0 तक) और फर्डिनेण्ड प्रथम (1835 ई0 से 1848 तक)। दोनों सम्राटों को उसने एक ही नीति का पालन करने का परामर्श दिया, वह थी ‘यथास्थिति’ (Status quo) बनाए रखने की नीति। इसके अतिरिक्त उसने आस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य में उदार विचारों का दमन और कठोर नियन्त्रण की भी नीति अपनाई। मेटरनिख एक बहुत स्वार्थी राजनेता था। आस्ट्रिया में यह सम्भव था कि प्रतिक्रिया के शिकंजे को खूब मजबूत कर दिया जाये, लेकिन साम्राज्य के बाहर भी नवीन और उदार विचारों के प्रचार को रोकना अत्यन्त आवश्यक था। साथ ही यूरोप में आस्ट्रिया नेतृत्व करे, यह भी मेटरनिख की अभिलाषा थी।

मेटरनिख नेपोलियन की बढ़ती हुई शक्ति से परिचित था। उसने एक बार कहा था, "अगर फ्रांस को जुकाम हो जाता है तो पूरा यूरोप छींकने लगता है।" साथ ही वह यह भी जानता था कि रूस का जार भी आस्ट्रिया का शत्रु है, अतः उसने ऐसी नीति अपनाई कि नेपोलियन और रूस परस्पर लड़कर नष्ट हो जायें ताकि आस्ट्रिया यूरोप का शक्तिशाली राज्य बना रहे। मेटरनिख ने नेपोलियन को हराने के लिए रूस को आगे किया और स्वयं गुप्त रूप से रूस के शासक के विरुद्ध योजनाएं बनाता रहा। नेपोलियन ने जब 1812 में रूस पर हमला किया तो मेटरनिख ने रूस के जार को विश्वास दिलाया था कि वह किसी भी ओर से युद्ध में सक्रिय भाग नहीं लेगा, पर दूसरी ओर उसने नेपोलियन की सहायता के लिए सेना तैयार रखी। वस्तुतः मेटरनिख उसी की सहायता के लिए तैयार था जिससे आस्ट्रिया को लाभ हो। इसलिए उसने आस्ट्रिया की सेना को सदैव इस दृष्टि से तैयार रखा था कि वह विजयी दल का साथ दे सके। लाइपत्सिग के युद्ध में उसने मित्र-राष्ट्रों का साथ दिया और नेपोलियन को पराजित करने के लिए मुख्य भाग लिया। अपनी दोहरी नीति और दूसरी ओर विजय का यश रूस को नहीं मिलने दिया। इसलिए वियना कांग्रेस में सब राष्ट्र मेटरनिख की मैत्री के आकांक्षी थे।

नेपोलियन प्रथम के बाद यूरोप में कोई भी राजनीतिज्ञ ऐसा नहीं था जो मेटरनिख की बराबरी कर सकता। अतः वियना कांग्रेस में आस्ट्रिया के गौरव को बढ़ाया। आस्ट्रिया का यह चांसलर वियना कांग्रेस का सभापति बना। वियना कांग्रेस के निर्णयों पर मेटरनिख का सबसे अधिक प्रभाव रहा। नेपोलियन के पराभव के बाद भी उसके सिद्धान्तों को भय बना हुआ था। मेटरनिख समझता था कि यदि स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धान्तों का बोलबाला रहा तो आस्ट्रिया भी उनसे प्रभावित हो सकता है। अतः इसके सम्भावित प्रसार को रोकने के लिए उसने वियना कांग्रेस में सक्रिय भूमिका निभई। निरंकुशता और न्याय्यता (Legitimacy) के सिद्धान्त पर बल देते हुए भी उसने यूरोपीय शक्ति-सन्तुलन पर ध्यान रखा तथा ऐस नीति अपनाई कि सभी बड़े राष्ट्रों के स्वार्थों की यथासम्भव पूर्ति हो सके। मेटरनिख समझता था कि बड़े राष्ट्रों में एकता बनाए रखने का यही मार्ग है। ये मेटरनिख की ही कूटनीति थी कि फ्रांस की शक्ति अच्छी तरह सीमित कर दी गई और आस्ट्रिया तथा फ्रांस क बीच ऐसी व्यवस्था की गई कि फ्रांस के क्रान्तिकारी विचार आस्ट्रिया में न घुस सकें। मेटरनिख की कूटनीति का ही यह जादू था कि आस्ट्रिया को लाम्बार्डी, वेनिस और बाबसिया मिल गए। यूरोप के अनेक राज्यों की सीमाएं पूर्ववत् रहीं। प्राचीन राजवंशों की पुनर्स्थापना की तथा क्षतिग्रस्त राज्यों की क्षतिपूर्ति की व्यवस्था कराई। रूस के जार और प्रशा के राजा पर उसका जादू छाया रहा। उसने जर्मन राज्य का संगठन किया, किन्तु सब का प्रधान आस्ट्रिया के राजा को बनाया गया। वास्तव में वियना कांग्रेस के उद्देश्य और निर्णय अधिकांशतः मेटरनिख की बुद्धि की उपज थे। वियना कांग्रेस के निर्णयों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए मेटरनिख ने संयुक्त व्यवस्था की स्थापना की। चतुर्मुखी मैत्री को कार्यरूप में परिणत कर दिखाना मेटरनिख की ही अद्भुत क्षमता थी। संयुक्त व्यवस्था के रूप में उसने एक ऐसे ‘फायर ब्रिगेड’ का निर्माण करना चाहा था जो यूरोप में सर्वत्र क्रान्ति की ज्वालाओं को बुझा दे। इस व्यवस्था के माध्यम से मेटरनिख ने नेपोलियन के युद्धों से जर्जरित यूरोप को शान्ति प्रदान करने की चेष्टा की। यह दूसरी बात है कि उसकी नीति से जो परिवर्तन हुए वे स्थायी न रह सके क्योंकि उनमें उदार और राष्ट्रीय भावनाओं का अभाव था। फिर भी उसे यूरोप में 30 वर्ष तक शान्ति बनाए रखने में सफलता मिली।

मेटरिख (१८३० में)

नेपोलियन के युद्धों ने जर्मनी क्षत-विक्षत हो गया था; फिर भी वियना कांग्रेस में उसने अपने समर्थकों की सहायता में जर्मनी में 39 राज्यों का एक संघ स्थापित किया। आस्ट्रियन सम्राट इसका अध्यक्ष बना। इसके साथ ही राज्य-संघ में एक संसद (Diet) की स्थापना की गई जिसमें जर्मनी के सभी राजाओं द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि भाग ले सकते थे। यह व्यवस्था मेटरनिख ने इस व्यवस्था की सहायता से प्रजातन्त्र के समर्थकों को कठोर दण्ड दिलवाकर उनकी भावनाओं को कुचल दिया। उसने 1819 में संसद का अधिवेशन बुलाकर अपनी इच्छानुकूल दमनकारी कानून पारित कराके उन्हें सम्पूर्ण जर्मनी में लागू करा दिया। इन कठोर निर्देशों के कारण 1818 से 1849 तक जर्मनी में राजनीतिक सन्नाटा छाया रहा। मेटरनिख के भय से जर्मनी के कुछ राज्यों के अतिरिक्त किसी भी राज्य में संविधानिक शासन स्थापित न हो सका। मेटरनिख की दमनकारी नीति और कूटनीतिक चालों से जर्मनी में उपद्रव व आन्दोलन तो शान्त हो गये, लेकिन जर्मन जनता आस्ट्रिया से घृणा करने लगी।

मेटरनिख की दमनकारी नीति से जनता ऊपर से शान्त हो गई लेकिन भीतर-ही-भीतर क्रान्ति की आग सुलगती रही। प्रशा जर्मनी का एक शक्तिशाली राज्य था जो व्यापार और कला-कौशल के क्षेत्र में आगे बढ़ा हुआ था। वहाँ मेटरनिख की दमनकारी नीति का प्रयोग विशेष फलदायक नहीं हो सका।

नेपालियन की पराजय के बाद 1815 की वियना कांग्रेस ने इटली को फिर छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त कर दिया। अब वहां मेटरनिख की क्रूर, स्वेच्छाचारी भावनाओं को कठोरतापूर्वक कुचला जाने लगा। पिंडमौण्ट और नेपल्स में विद्रोह हुए, किन्तु मेटरनिख ने रूस और प्रशा को अपनी ओर मिला लिया और ट्रोपो-सम्मेलन से अनुमति प्राप्त करके विद्रोहो को क्रूरतापूर्वक दबा दिया। क्रान्तिकारियों का दमन करके उसने पुनः निरंकुश शासन स्थापित किया; लेकिन क्रान्तिकारियों की कारबोनरी नामक गुप्त समिति अपना कार्य गुप्त रूप से करती रही। अवसर मिलने पर मोडना, टस्कनी, बोल्गाना आदि से भयंकर विद्रोह हुए। इटली के अन्य भागों में मेटरनिख के प्रभाव के कारण शान्ति बनी रही। शनैः शनैः दमन-नीति के कारण आस्ट्रिया का शासन इटलीवासियों के लिए असह्य हो गया, अतः आस्ट्रियन फौजों की वहां से निकलने के लिए आन्दोलन हुआ जिसे अन्ततः मेटरनिख दबा न सका।

स्पेन में भी मेटरनिख राजनय का खेल राष्ट्रवादी भावना को कुलचने का रही। यूनानियों के स्वातन्त्र आन्दोलन के विरुद्ध भी मेटरनिख का घोर प्रतिक्रियावादी रूख रहा। मेटरनिख के प्रभाव में आकार ही जार ने यूनानियों की सहायता नहीं की। यूरोप के दूसरे राज्यों ने भी यूनानी जनता को उनके स्वतन्त्रता-संग्राम में मदद नहीं दी। मेटरनिख ने कहा, "उपद्रव को चाहिये कि वह अपने को सभ्यता के दायरे से बाहर कर भस्म कर ले।" प्रारम्भ में रूस का जार एलेक्जेण्डर उदार विचारों से प्रभावित था, किन्तु 1815 के बाद वह क्रमशः मेटरनिख के प्रभाव में आता गया और ट्रीपो सम्मेलन के समय उसने स्पष्ट रूप से कह दिया कि वह मेटरनिख का अनुयायी है। नेपोलियन को हराने में बड़े राष्ट्रों का जो सहयोग रहा था, उसके फलस्वरूप इंग्लैण्ड के कैसलरे और आस्ट्रिया के मेटरनिख वियना सम्मेलन में सहयोगी रहे; अतः यूरोप में ‘यथास्थिति’ बनाए रखने के लिए चतुर्मुखी मैत्री अस्तित्व में आई, किन्तु जहां मेटरनिख से संयुक्त व्यवस्था के सम्मेलनों में ‘हस्तक्षेप के सिद्धान्त’ की वकालत की वहाँ इंग्लैण्ड ने 'निर्हस्तक्षेप' के सिद्धान्त पर बल दिया। मेटरनिख अपने सम्पूर्ण प्रधान-मन्त्रित्वकाल में घोर प्रतिक्रियावादी बना रहा। उसने स्वयं को राष्ट्रीयता और लोकतन्त्र का कट्टर शत्रु सिद्ध किया। क्रान्तियों को कुलचने के लिए और प्रगतिशील प्रवृत्तियों के दमन के लिए उसने यूरोप के देशों के आन्तरिक मामलों में खुलकर भाग लिया। लगभग 33 वर्ष तक वह सम्पूर्ण यूरोप में 'पुलिसमैन' का कार्य करता रहा। जहाँ कहीं क्रान्ति हुई वह तुरन्त डण्डा लेकर पहुंच गया और क्रान्ति एवं नव-चेतना को पूरी तरह दबा कर ही वहाँ से लौटा। रूस का जार एलेक्जेण्डर प्रथम और प्रशा का सम्राट फ्रेड्रिक आरम्भ से उदार मनोवृत्ति के शासक थे, किन्तु मेटरनिख के प्रभाव में आकार ये शासक भी उसी की भाँति अनुदार हो गये।

1815 से 1848 तक मैटरनिख क्रान्ति के तत्वों का दमन करता रहा, परन्तु 1848 की क्रान्ति ने उसकी जड़ें हिला दीं। 1848 की क्रान्ति का समाचार सुनकर उसने कहा था- "मैं एक पुराना हकीम हूँ। मैं भली प्रकार जानता हूँ कि साध्य और असाध्य रोग में क्या अन्तर है? यह रोग प्राण-घातक है।" उसका कथन ठीक ही था। मार्च, 1848 में आस्ट्रिया की राजधानी वियना की सड़कें 'मेटरनिख का नाश हो’ के नारों से गूँजने लगी। आस्ट्रिया के सम्राट ने घबराकर मेटरनिख को पदच्युत कर दिया। उसे जान बचाने के लिए इंग्लैण्ड भाग जाना पड़ा। इस प्रकार निरंकुश राजसत्ताधारी मैटरनिख युग की समाप्ति हो गई और मेटरनिख युग की समाप्ति के साथ ही यूरोपीय इतिहास का एक युग भी समाप्त हो गया।

मेटरनिख को चाहे अन्त में करुणाजनक पतन का शिकार होना पड़ा, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह तत्कालीन यूरोप का महानतम् राजनीतिज्ञ था। उसके पतन के साथ ही यूरोपीय इतिहास का वह युग समाप्त हों गया जो वियना कांग्रेस के साथ ही प्रारम्भ हुआ था। यूरोपीय इतिहास का यह युग ‘मेटरनिख युग’ के नाम से जाना जाता है। इस सम्पूर्ण समय में मेटरनिख केवल आस्ट्रिया पर ही नहीं, वरन् समस्त यूरोप पर छाया रहा।

११ जून १८५९ को ८६ वर्ष की आयु में वियना में उसकी मृत्यु हुई।

इतिहास में मेटरनिख का मूल्यांकन

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मेटरनिख ने सबसे पहले बड़ा काम यह किया कि उसने एक लम्बे अरसे तक यूरोप को शान्ति दी। नेपोलियन के युद्धों से लहूलुहान यूरोप को आराम और शान्ति को बड़ी जरूरत थी। मेटरनिख ने अपने कार्यकाल में इस बात की भरसक कोशिश की कि यूरोप में शान्ति बनी रहे। सन् 1815 ई0 के बाद 40 वर्षों तक यूरोप में जो शान्ति कायम रही, उसका श्रेय सही अर्थ में मेटरनिख को ही दिया जा सकता है, चाहे यह शान्ति बहुत महंगी पड़ी हो। मेटरनिख अपने समय का महान कूटनीतिज्ञ था। वह अपने समय में यूरोपीय राजनीति का केन्द्र था। पर प्रतिक्रियावादी और प्रगतिवादी शक्तियों के संघर्ष में प्रगतिवादी शक्तियों का, विजयी होना स्वाभाविक और निश्चित था। इसीलिए मेटरनिख का पतन हुआ। फिर भी 1815 ई0 से 1848 ई0 तक वह प्रतिक्रियावादी शक्तियों का आधार-स्तम्भ रहा। उसके पतन के बाद ही प्रतिक्रियावाद का महल ढह सका। मेटरनिख ने एक बार विख्यात कवि हीसिअड की तरह अपनी अवस्था पर दुःख प्रकट करते हुए कहा था- "मैं इस संसार में या तो बहुत जल्दी या बहुत देर से आया हूँ क्योंकि जब मैं बूढ़ा होता जा रहा हूँ तो संसार का यौवन खिलता जा रहा है। यदि पहले से आया होता तो युग का आनन्द लेता और यदि देर से आया जोता तो उसके निर्माण मे सहायक होता।"

मैटरनिक के तमाम प्रयत्नों के बावजूद राष्ट्रवाद, उदारवाद और प्रजातंत्र की भावना ने यूरोप को प्रभावित कर दिया। वस्तुतः औद्योगीकरण तथा इसके फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तनों ने मैटरनिक व्यवस्था के पतन को अवश्यभावी बना दिया। समृद्ध होता बुर्जुआ वर्ग मैटरनिक सरकार की पिछड़ी हुई आर्थिक नीति से अशांत हो उठा तथा श्रमिक वर्ग की कठिनाईयों ने मैटरनिक के 'लोहे के पर्दे' में छेद कर दिया। नया साहित्य चोरी छिपे आस्ट्रिया पहुंचने लगा था जिससे वहां राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग होने लगी। मैटरनिक के लाख प्रयासों के बावजूद हंगरी, बोहेमिया में रहने वाले जातियों में विद्रोह होने लगा। 1829 ई. में यूनान को स्वतंत्रता मिल गई और 1830 ई. में बेल्जियम हॉलैंड से स्वतंत्र हो गया। वह मैटरनिक व्यवस्था की बहुत बड़ी विफलता थी क्योंकि इसमें राष्ट्रवाद की जीत हुई थी।

1848 की क्रांति के परिणामस्वरूप जब आस्ट्रिया में विद्रोह फैलने लगा और छात्रों, श्रमिकों पत्रकारों ने स्वतंत्रता प्रदान करने, सेंसर उठाए जाने की मांग की तो बूढ़ा मैटरनिक इन प्रदर्शनों से घबराकर वियना छोड़कर इंग्लैंड भाग गया। इसका कारण यह था कि प्रगतिशीलता की बयार को वह एक लंबे समय तक नहीं रोक सकता था। इस प्रकार देखते है कि मैटरनिक ने यूरोप में यथास्थिति बनाए रखने तथा राष्ट्रवाद, उदारवाद एवं प्रजातंत्र की भावनाओं को दूर रखने का प्रयास किया। लेकिन जनमानस में बैठ चुकी उदारवाद की भावना तथा परिवर्तन की आकांक्षा को रोक पाने में असफल रहा।

मेटरनिख की प्रतिक्रियापादी नीति अन्त में न तो आस्ट्रिया के हित में ही रही और न यूरोप के अन्य निरंकुश शासकों के हित में ही। यद्यपि वह आस्ट्रिया में निरंकुश राजतन्त्र बनाये रखने में सफल हुआ, पर उसकी नीति से आस्ट्रिया को बड़ी हानि पहुंची। उसकी नीति के फलस्वरूप आस्ट्रिया यूरोप का एक पिछड़ा देश रह गया। सभ्यता के किसी भी क्षेत्र में वह प्रगति न कर सका। इसके विपरीत मध्य यूरोप में प्रशा प्रगति करता रहा। उन्नति, प्रगति और विकास की दौड़ में आस्ट्रिया इतनी बुरी तरह पिछड़ गया कि मेटरनिख के पतन के बाद यूरोप का नेतृत्व प्रशा के हाथ में आ गया। 1866 ई0 में आस्ट्रिया को प्रशा के हाथों पराजित होना पड़ा और जर्मनी छोड़ देना पड़ा। यदि मेटरनिख थोड़ा भी उदारवादी होता तो सम्भवतः आस्ट्रिया को ऐसे दुर्दिन न देखने पड़ते।

फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि मेटरनिख आस्ट्रिया का चांसलर था, अतः यह आवश्यक था कि कि उसकी नीति आस्ट्रिया के हितों के अनुकूल हो। आस्ट्रियन साम्राज्य का कायम रखना उसका कर्त्तव्य था। आस्ट्रियन साम्राज्य विभिन्न जातियों का जमघट था और यदि मेटरनिख राष्ट्रीयता के सिद्धान्त को अपनाता तो इसका अर्थ साम्राज्य के विनाश को निमन्त्रण देना होता। अतः नवीन भावनाओं को कुलचना स्वाभाविक था। यदि मेटरनिख की जगह कोई अन्य व्यक्ति होता तो वह भी सम्भवतः मेटरनिख के पद-चिन्हों पर ही चलता। मेटरनिख का मूल्यांकन करते हुए प्रो॰ फिशर ने लिखा है- "मेटरनिख प्रणाली से आस्ट्रियन शासकों को एक पीढ़ी का यश प्राप्त हुआ। इन लोगों को उन दिनों युद्ध की कठिनाइयों का ही ज्ञान था। मेटरनिख में एक महान राजनीतिक नेता के अनेक गुण थे। वह तीव्र और आकर्षक बुद्धि का धनी, शान्त-चित्त, गहरी सूझ-बूझ और देशभक्त था। अपने देश के मुक्त्दिता तथा नवीन यूरोप के निर्माता के रूप में उसका भारी सम्मान था। जर्मन भाषा-भाषी देशों को तो उसमें असीम विश्वास था। निरंकुश और स्वेच्छाचारी राजाओं के सम्मेलनों का वही संचालन करता था। अतः सन् 1815 से 1848 की अवधि को यदि ‘मेटरनिख युग’ कहा जाता है तो ठीक ही है। पर यह महान योग्य सामन्त, जिसका चरित्र इतना हीन, जिसके सिद्धान्त अत्यन्त कठोर और जिसका प्रभाव इतना सुविस्तृत था, एक बहुत बड़ी मानसिक दुर्बलता का शिकार था। उसने ‘क्रान्ति’ और ‘स्वेच्छाचारी शासन’ इन दो प्रणालियों के बीच कोई मार्ग खोजने की कोशिश नहीं की। चूंकि क्रान्ति से उसे अत्यन्त घृणा थी, अतः उसने इस भावना का, जिसे समाज में मानवतापूर्ण जीवन की आत्मा अथवा स्वतन्त्रता का प्राण माना जा सकता है, दमन करने का बीड़ा उठाया।"

इन्हें भी देखें

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