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तनाव (मनोवैज्ञानिक)

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आज के समय में तनाव (stress) लोगों के लिए बहुत ही सामान्य अनुभव बन चुका है, जो कि अधिसंख्य दैहिक और मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं द्वारा व्यक्त होता है। तनाव की पारंपरिक परिभाषा दैहिक प्रतिक्रिया पर केंद्रित है। हैंस शैले ( Hans Selye) ने 'तनाव' (स्ट्रेस) शब्द को खोजा और इसकी परिभाषा शरीर की किसी भी आवश्यकता के आधार पर अनिश्चित प्रतिक्रिया के रूप में की। हैंस शैले की पारिभाषा का आधार दैहिक है और यह हारमोन्स की क्रियाओं को अधिक महत्व देती है, जो ऐड्रिनल और अन्य ग्रन्थियों द्वारा स्रवित होते हैं।

शैले ने दो प्रकार के तनावों की संकल्पना की-

  • (क) यूस्ट्रेस (eustress) अर्थात मधयम और इच्छित तनाव जैसे कि प्रतियोगी खेल खेलते समय
  • (ख) विपत्ति (distress/डिस्ट्रेस) जो बुरा, असंयमित, अतार्किक या अवांछित तनाव है।

तनाव पर नवीन उपागम व्यक्ति को उपलब्ध समायोजी संसाधानों के सम्बन्ध में स्थिति के मूल्यांकन एवं व्याख्या की भूमिका पर केंद्रित है। मूल्यांकन और समायोजन की अन्योन्याश्रित प्रक्रियायें व्यक्ति के वातावरण एवं उसके अनुकूलन के बीच सम्बन्ध निर्धारण करती है। अनुकूलन वह प्रक्रिया है जिस के द्वारा व्यक्ति दैहिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक हित के इष्टतम स्तर को बनाए रखने के लिए अपने आसपास की स्थितियाँ एवं वातावरण को व्यवस्थित करता है।

तनाव के कारक

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वातावरण की कोई घटना या कोई बात जो तनाव उत्पन्न कर सकती है उसे 'तनाव का कारक' कहा जाता है जैसे बहुत ज्यादा कार्यभार, भूकंप से हुई तबाही इत्यादि। तनाव के कारकों को व्यापक रूप से निम्नलिखित वर्गों में व्यवस्थित किया जा सकता है।

  • 1. जीवन की मुख्य घटनाएं और बदलाव : इस श्रेणी में किसी व्यक्ति की जिंदगी से जुड़ी कोई महत्वपूर्ण घटना सम्मिलित है, जो उसके जीवन पर चिरस्थायी प्रभाव डालती है। जैसे विवाह, सेवा-निवृत्ति या तलाक।
  • 2. रोजमर्रा की परेशानियां : ये वह परेशान करने वाली, निराशापूर्ण व दुखद आवश्यकताएँ होती हैं जिन का कोई व्यक्ति प्रतिदिन सामना करता है, जैसे वस्तुओं को गलत जगह पर रख देना या उन का गुम हो जाना, निर्धारित तिथि के अनुसार कार्य संपूर्ण करने की जिम्मेदारी, वाहनों के जाम में फँस जाना, पंक्ति में इंतजार में खड़े रहना।
  • 3. दीर्घकालिक भूमिका से तनाव : जैसे की वैवाहिक जीवन में मुश्किलों का सामना करना, विकलांग बच्चे को संभालना या गरीबी में रहना।
  • 4. अभिघात : ये अनपेक्षित, भयंकर, अत्यन्त अशांत कर देनेवाली घटनाएं होती हैं जो हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती है। जैसे आणविक हमला, बम फटना या प्रिय व्यक्ति की मृत्यु।

तनाव कारकों के प्रति साधारण प्रतिक्रियाएं

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तनाव के कारकों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं को न्यून संवेदना से लेकर गम्भीर व्यवहारात्मक परिवर्तनों की व्यापक श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। ये प्रतिक्रियाएं निम्नलिखित वर्गों में श्रेणीबद्व की गई हैं :-

व्यवहारात्मक प्रतिक्रियाएं

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  • 3. अशांत निद्रा
  • 6. भूख न लगना या आवश्यकता से अधिक खाना
  • 7. चिड़चिड़ापन कीसीकी बात अच्छी नहीं लगती
अदर अदर  दील  जलना
  • 8. आक्रामकता
  • 9. दुर्बल या विकृत आवाज
  • 10. समय का कमजोर प्रबन्धन
  • 14. बाध्यकारी व्यवहार
  • 15. उत्पादकता में कमी
  • 16. रिश्तों से पलायन
  • 17. कार्य स्थान से अत्यधिक अनुपस्थित रहना
  • 18. बारबार रोना
  • 19. अव्यवस्थित दिखना

भावनात्मक प्रतिक्रियाए

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  • 4 दोषी महसूस करना
  • 5 ठेस
  • 8 आत्मघाती विचार

संज्ञानात्मक प्रतिक्रियाएं

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  • 1 नकरात्मक आत्मसंकल्पना
  • 2 आत्म-आश्वासन
  • 3 निराशावादी कथन
  • 4 स्वयं और दूसरों के प्रति निराशावादी सोच
  • 5 संज्ञानात्मक विकृति

अंतरवैयक्तिक प्रतिक्रियाएं

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  • 1 निष्क्रिय/आक्रामक सम्बन्ध
  • 2 झूठ बोलना
  • 3 प्रतियोगितात्मकता
  • 4 प्रशंसा का दिखावा करना
  • 5 अलग होना
  • 6 शक्की स्वभाव
  • 7 चालाक प्रवृतियाँ
  • 8 गप लगाना

जैविक प्रतिक्रियाएं

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  • 1. ड्रग्स का उपयोग करना
  • 3. बारबार मूत्र जाना
  • 4. एलर्जी व प्रतियूर्जता/त्वचा पर फुन्सी हो जाना
  • 6. हमेशा थकावट रहना/परिश्रांत
  • 7. शुष्क त्वचा
  • 11. बारबार फ्लू/जुकाम
  • 11. प्रतिरक्षा तंत्र का घटना
  • 12. भूख न लगना

द्वन्द्व और निराशा के प्रकार

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जब कोई व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में रुकावटों का सामना करता है तो वह तनावग्रस्त हो जाता है। यह अक्सर व्यक्ति में द्वन्द्व और निराशा की भावना पैदा करता है। प्रबल निराशा मिलने के कारण यह द्वन्द्व और भी तनावपूर्ण हो जाता है। आमतौर पर व्यक्ति द्वन्द्व में तब पड़ जाता है जब वह परस्पर विरोधी स्थिति का सामना करता है। उद्देश्य और परिस्थिति के स्वरूप पर निर्भर व्यक्ति जीवन में तीन प्रकार के द्वन्द्वों का सामना करता है।

  • (क) प्रस्ताव-प्रस्ताव द्वन्द्व
  • (ख) परिहार-परिहार द्वन्द्व
  • (ग) प्रस्ताव-परिहार द्वन्द्व

प्रस्ताव-प्रस्ताव द्वन्द्व : इस तरह का द्वन्द्व तब उत्पन्न होता है जब किसी व्यक्ति को दो या अधिक वांछित उद्देश्यों में से चुनाव करना पड़ता है। इस तरह के द्वन्द्व में दोनों ही लक्ष्यों की प्राप्ति की चाहत होती है। उदाहरण के लिए, एक ही दिन में दो विवाहों के निमंत्रण में से किसी एक का चुनाव करना।

परिहार-प्रस्ताव द्वन्द्व : इस तरह का द्वन्द्व तब उत्पन्न होता है जब किसी व्यक्ति को दो या अधिक अवांछित लक्ष्यों में चुनाव करना पड़ता है। इस तरह के द्वन्द्व को अक्सर 'एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई' वाली स्थिति कहा जाता है। जैसे कि कम शैक्षिक योग्यता वाले युवा को या तो बेरोजगारी का सामना करना पड़ेगा या फिर बहुत ही कम आय की अनचाही नौकरी को स्वीकार करना पड़ेगा। इस तरह का द्वन्द्व बहुत ही गम्भीर सामंजस्य की समस्याएं उत्पन्न करता है, क्योंकि द्वन्द्व का समाधान करने पर भी चैन की बजाय निराशा ही उत्पन्न होगी।

प्रस्ताव-परिहार द्वन्द्व : इस तरह के द्वन्द्व में किसी व्यक्ति में समान उद्देश्य का चुनाव करने एवं उसे नकारने दोनों के प्रति प्रबल रूझान होता है। जैसे कि एक युवा सामाजिक और सुरक्षा कारणों से विवाह करना चाहता है लेकिन उसी स्थिति में वह विवाह की जिम्मेदारियों और निजी स्वतंत्रता के खत्म हो जाने का भय भी रखता है। ऐसे द्वन्द्व का समाधान लक्ष्य के कुछ नकरात्मक और सकरात्मक पहलुओं को स्वीकृत करने से ही सम्भव है।

बहुसंख्यक विकल्पों के होने के कारण कभी-कभी प्रस्ताव-परिहार द्वन्द्व को "मिश्रित-अनुग्रह" द्वन्द्वों के संदर्भ में भी देखा जाता है।

कुंठा : (देखें, कुण्ठा) कुंठा एक प्रयोगात्मक अवस्था है जो कि कुछ कारणों के परिणामस्वरूप होती है जैसे

  • (क) बाहरी प्रभावों के कारण आवश्यकताओं और अभिप्रेरणाओं में अवरोध पैदा होना जो कि लक्ष्य में बाधाएं उत्पन्न करता है और आवश्यकताओं की पूर्ति होने से रोकता है।
  • (ख) वांछित लक्ष्यों की अनुपस्थिति द्वारा।

अवरोध व बाधाएं भौतिक एवं सामाजिक दोनों प्रकार की हो सकती हैं और ये व्यक्ति में निराशा या कुंठा का भाव उत्पन्न करती हैं। इस में दुर्घटना, अस्वस्थ अंतरवैयक्तिक संबंध, प्रिय की मृत्यु हो जाना। व्यक्तिगत् अभिलक्षण जैसे शारीरिक विकलांगता, अपूर्ण योग्यता और आत्मानुशासन का अभाव भी कुंठा की जड़ है। कुछ साधारण कुंठाएं हैं जो अक्सर कुछ निश्चित मुश्किलों का कारण बन जाती है। इनमें वांछित लक्ष्य की प्राप्ति में विलम्ब, संसाधानों का अभाव, असफलता, हानि, अकेलापन और निरर्थकता सम्मिलित है।

सन्दर्भ

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बाहरी कड़ियाँ

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इन्हें भी देखें

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