ऐक्टर-नेटवर्क सिद्धान्त
ऐक्टर-नेटवर्क सिद्धान्त (Actor–network theory (ANT)) सामाजिक सिद्धान्त एवं अनुसंधान की वह विधि है जो वस्तुओं को सामाजिक नेटवर्क का भाग मानती है। नेटवर्क की अवधारणा के इर्द-गिर्द हुआ चिन्तन अभी तक प्रौद्योगिकीय और सामाजिक चिन्तन के बीच संबंध-सूत्र कायम करने की समस्या का संतोषजनक हल नहीं खोज पाया है। एक्टर- नेटवर्क थियरी इसी समाधान का प्रयास करती है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी संबंधी अध्ययन के विद्वान ब्रूनो लातूर और मिशेल कैलन ने समाजशास्त्री जॉन लॉक की मदद से इसका प्रतिपादन किया। तकनीकी रूप से इसे ‘मैटीरियल-सीमियोटिक’ पद्धति का नाम दिया जाता है। अर्थात् इस सिद्धांत के द्वारा वस्तुओं के बीच संबंधों का अध्ययन तो किया ही जाता है, यह अवधारणाओं के बीच संबंधों की समझ बनाने में भी मदद करता है।
यह सिद्धान्त यह मान कर चलता है कि कई संबंध एक साथ भौतिक (मैटीरियल) और संकेतमूलक (सीमियोटिक) होते हैं। उदाहरण के लिये, किसी बैंक में व्यक्तियों, उनके विचारों और प्रौद्योगिकी के बीच त्रिकोणीया अन्योन्यक्रिया होती है। परिणामस्वरूप एक ऐसा नेटवर्क बनता है जो एकल अस्तित्व के रूप में ‘एक्ट’ करते हुए विभिन्न तत्त्वों के साथ अपना सूत्र कायम करता है ताकि स्वयं में सुसंगत और सम्पूर्ण हो सके। एक्टर-नेटवर्क के इस के लगातार बनते-बिगड़ते रहते हैं। ऐसे नेटवर्कों में संबंधों को लगातार और बार-बार ‘परफ़ॉर्म’ करना पड़ता है, अन्यथा नेटवर्क बिखर जाता है। इस नेटवर्क को सुसंगत बनाये रखने के लिए जरूरी है कि उसके सदस्यों के बीच द्वंद्व कम से कम हो (श्रम-संबंध दुरुस्त रहें या कम्प्यूटर सॉक्रटवेयरों के बीच समरसता रहे)। फ़्रांसीसी दार्शनिक ज़ील डलज़ और फ़ेलिक्स गुआतारी (Deleuze and Guattari) के चिंतन से प्रेरणा लेने वाली इस थियरी की रुचि यह बताने में है कि एक्टर-नेटवर्क कैसे बनता है, कैसे ख़ुद को कायम रखता है और कैसे बिखर जाता है। लेकिन इसके ज़रिये यह पता नहीं चलता कि नेटवर्क अपना प्रकट रूप कैसे ग्रहण करता है। नेटवर्क की अवधारणा के प्रति द्वैध के बावजूद इस सिद्धांत के कारण मोबिलिटी और कनेक्टिविटी संबंधी प्रश्नों पर नवीन चिंतन की गुंजाइशें निकली हैं।
जॉन लॉक और जॉन हैसर्ड द्वारा सम्पादित ग्रंथ "एक्टर नेटवर्क थियरी ऐंड ऑक्रटर" में इस सिद्धांत की विशेषताओं, उपलब्धियों और सीमाओं का एक कारगर ख़ाका मिलता है। लॉक के अनुसार यह थियरी ‘भौतिकता के लक्षणशास्त्र’ या ‘संबंधात्मक भौतिकता’ ज़ोर देती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि यह सिद्धांत लक्षणशास्त्र के दायरे से ली गयी संकेतों की संबंधात्मकता के औजार से भौतिक रूपों का विश्लेषण करता है। इन भौतिक रूपों में रोजाना के जीवन से जुड़ी वस्तुएँ भी हो सकती हैं। एक्टर-नेटवर्क थियरी अपनी इसी विशेषता के कारण सोशल नेटवर्क विश्लेषण से अलग हो जाती है। लक्षण-विज्ञान एक भाषाशास्त्रीय उपकरण है, पर यह सिद्धांत उसकी अंतर्दृष्टियों का इस्तेमाल करके तत्त्वों की संबंधात्मकता की टोह लेता है और फिर उसके ज़रिये बेहिचक होकर हर तरह की सामग्री का विश्लेषण कर डालता है। नारीवादी चिंतक डोना हारावे ने भी नब्बे के दशक में भौतिक और सांकेतिक के बीच संबंधों की थाह लेने के लिए ऐसे तत्त्वों का अध्ययन किया था जो भौतिक रूप में होने के बावजूद नये तरह की बौद्धिक सम्पदा की तरफ इशारा करती थीं।
लॉक के अनुसार इसके माध्यम से यह पद्धति पता लगाती है कि दूसरे तत्त्वों के साथ अपनी के मानवीय ग़ैर-मानवीय तत्त्वों पर क्या असर पड़ता है। एक-दूसरे के साथ सम्बन्धों के के तहत चीजें अपनी या दूसरों की क्रियात्मकता से गुजरती हैं। यहाँ लॉक पूछते हैं कि इस क्रियात्मकता और संबंधों की अपेक्षाकृत स्थिरता और स्थानिकता के बीच क्या संबंध है? इसके जवाब में लॉक एक वैकल्पिक स्थान-वैज्ञानिक (टोपोलॅजीकल प्रणाली) के रूप में नेटवर्क के विचार को पेश करते हैं। यानी एक नेटवर्क के तहत अपनी आपसी सूत्रों या संबंधों के आधार पर विभिन्न तत्त्व अपने स्थानिक अखण्डता कायम रख पाते हैं। सोशल नेटवर्क विश्लेषण के महारथी जिस नेटवर्क की चर्चा करते हैं, वह नेटवर्क यह नहीं है। उनके लिए तो नेटवर्क एक अपेक्षाकृत तटस्थ और वर्णनात्मक पद है।
जॉन लॉक के लिए नेटवर्क अपने-आप में स्थानिकता का एक स्वरूप या स्वरूपों का एक समुच्चय है। नेटवर्क की यह विशेषता किसी भी तरह की टोपोलॅजीकल सम्भावना पर अपनी तरफ से कड़ी सीमाएँ आरोपित करती है। वह नेटवर्क के भीतर काम कर रहे सूत्रों का समरूपीकरण नहीं होने देती। न ही सम्भव संबंधों का समरूपीकरण हो पाता है। परिणामस्वरूप सम्भव तत्त्वों के चरित्र का भी समरूपीकरण नहीं होता। इसी पर थियरी सीमाएँ सामने आती हैं। लॉक को नेटवर्क की अवधारणा के साथ पहली मुश्किल यह लगती है कि उसके ज़रिये एक सीमा तक ही विश्लेषण किया जा सकता है। इसकी वजह यह है कि नेटवर्क पहले से ही एक खास रूप ग्रहण कर चुका है। एक ऐसा रूप जो अपनी पहुँच के सभी जुड़ सकने वाले तत्त्वों के साथ एक जैसा ही व्यवहार करता है। लॉक को आपत्ति इस बात पर है कि इस रवैये के कारण नेटवर्क के भीतर और नेटवर्कों के बीच बनने वाले सूत्रों के बारे में पूरी जानकारी नहीं मिलती। इसी कारण से तत्त्वों के बारे में भी पता नहीं चल पाता कि उन्होंने अपना मौजूदा रूप कैसे प्राप्त किया। लॉक की मान्यता है कि जब तक यह थियरी नेटवर्क के विचार के परे जा कर तत्त्वों की नानाविध बहुलता पर बल नहीं देगी, और संबंधों की जटिलता को फिर से रेखांकित नहीं करेगी तब तक यह समस्या हल नहीं हो सकती।
रोचक बात यह है कि एक्टर-नेटवर्क थियरी के प्रमुख ब्रूनो ने बाद में इसकी आलोचना की। लातूर का कहना था कि इस सिद्धांत में चार चीजे कारगर नहीं हैं। न एक्टर शब्द कारगर है, न नेटवर्क, न थियरी और न ही एक्टर और नेटवर्क के बीच लगा हायफ़न। उनका तर्क यह था कि बीस साल पहले नेटवर्क के विचार और रूपक का इस्तेमाल करने पर वह समाज और राष्ट्र-राज्य जैसे स्थापित विचारों के परे जाने की गुंजाइश प्रदान करता था, पर आज वर्ल्ड वाइड वेब का वजूद कायम हो चुका है और लगभग हर व्यक्ति नेटवर्क का मोटा-मोटा मतलब समझता है। दरअसल, अपनी ही थियरी को ख़ारिज करने के पीछे लातूर की मंशा यह कहने की थी आज के ज़माने में नेटवर्क के विचार का इस्तेमाल संस्थागत रूपों के विश्लेषण से कतराते हुए लचीलेपन और प्रवाहों पर ज़ोर देने के लिए ही किया जाता है। इस चक्कर में होता यह है कि स्थानिकता का प्रश्न विश्लेषण से छूट जाता है और संस्थागत रूप आलोचना से बच हैं उन आलोचना कोई असर नहीं होता। दूसरे, यह आलोचना करते हुए लातूर को यह चिंता भी सता रही थी कि आजकल समाज-विज्ञान में नेटवर्क पद का अंधाधुंध इस्तेमाल होने लगा है, जबकि यह मुख्यतः तकनीकी शै है जिसकी नफ़ासत और पेचीदगी को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।
आलोचना के इस मुकाम पर लातूर को डलज़ और गुआतारी द्वारा सुझाये गये ऋजमो ( rhizomes ; जड़ों की जटिल प्रणाली जिसकी एक-दूसरे क्षैतिज में हैं) के विचार में गुंजाइश नज़र आती है। ऋजमो की ख़ास बात यह है कि वह किसी सुपरिभाषित भू-क्षेत्रीयता के बिना ही अपनी शाखाओं के संबंध-सूत्रों के कारण प्रणालीगत गुणों को व्यक्त करता है। डलज़ और गुआतारी कहते हैं कि ऋजमो की परिभाषा संबंध-सूत्रों और विषमांगता के आधार पर होती है। वह किसी के साथ किसी भी समय संबंध कायम कर सकता है। ऋजमो के तर्ज़ पर लातूर कहते हैं कि नेटवर्क को एक ऐसे रूप की तरह ग्रहण किया जाना चाहिए जो लगातार बनता-बिगड़ता रहता है, और जो संबंध-सूत्रों की अभूतपूर्व सम्भावना पेश करता है। यह आलोचना करते-करते लातूर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि नेटवर्क कहने के बजाय अब 'वर्क-नेट' की अभिव्यक्ति का प्रयोग किया जाना चाहिए। उनके अनुसार नेटवर्क में सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा ‘वर्क’ का ही है। संबंध-सूत्र करने लिए करना, या परफ़ॉर्मेटिविटी आवश्यक है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- (१) ब्रूनो लातूर (2005), रिएसेम्बलिंग द सोशल : ऐन इंट्रोडक्शन टू एक्टर-नेटवर्क थियरी, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, ऑक्सफ़र्ड.
- (२) जॉन लॉक और जॉन हैसर्ड (सम्पा.) (1999), एक्टर नेटवर्क थियरी ऐंड आफ़्टर, ब्लैकवेल, ऑक्सफ़र्ड.