साइकिल, जिसे बाइक या बाइसाइकल भी कहा जाता है, एक मानव-चालित या मोटर-चालित, पैडल-चालित, एकल-ट्रैक वाहन है, जिसमें दो पहिए एक फ्रेम से जुड़े होते हैं, एक के पीछे एक। साइकिल सवार को साइकिल चालक कहा जाता है।

चीनी फ्लाइंग पिजन, न केवल विश्व की सबसे प्रसिद्द साइकिल मॉडल है, बल्कि किसी भी प्रकार के वाहन का सबसे प्रसिद्द मॉडल है

19 वीं शताब्दी में यूरोप में साइकिल की शुरुआत की गई थी, और 21 वीं सदी की शुरुआत में, एक समय में 1 अरब से अधिक अस्तित्व में थे। ये संख्या कारों की संख्या से अधिक है, दोनों कुल और उत्पादित व्यक्तिगत मॉडल की संख्या से क्रमबद्ध हैं। वे कई क्षेत्रों में परिवहन के प्रमुख साधन हैं। वे मनोरंजन का एक लोकप्रिय रूप भी प्रदान करते हैं, और बच्चों के खिलौने, सामान्य फिटनेस, सैन्य और पुलिस अनुप्रयोगों, कूरियर सेवाओं, साइकिल रेसिंग और साइकिल स्टंट के रूप में उपयोग के लिए अनुकूलित किए गए हैं।

आविष्कार

1839 में स्कॉटलैंड के एक लोहार किर्कपैट्रिक मैकमिलन द्वारा आधुनिक साइकिल का आविष्कार होने से पूर्व यह अस्तित्व में तो थी पर इस पर बैठकर जमीन को पांव से पीछे की ओर धकेलकर आगे की तरफ़ बढ़ा जाता था। मैकमिलन ने इसमें पहिये को पैरों से चला सकने योग्य व्यवस्था की।

ऐसा माना जाता है कि 1817 में जर्मनी के बैरन फ़ॉन ड्रेविस ने साइकिल की रूपरेखा तैयार की। यह लकड़ी की बनी सायकिल थी तथा इसका नाम ड्रेसियेन रखा गया था। उस समय इस साइकिल की गति 15 किलो मीटर प्रति घंटा थी।[1] इसका अल्प प्रयोग 1830 से 1842 के बीच हुआ था।

इसके बाद मैकमिलन ने बिना पैरों से घसीटे चलाये जा सकने वाले यंत्र की खोज की जिसे उन्होंने वेलोसिपीड का नाम दिया था। पर अब ऐसा माना जाने लगा है कि इससे बहुत पूर्व 1763 में ही फ्रांस के पियरे लैलमेंट ने इसकी खोज की थी।

इतिहास

 
साइकिल का क्रमिक विकास

यूरोपीय देशों में बाइसिकिल के प्रयोग का विचार लोगों के दिमाग में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही आ चुका था, लेकिन इसे मूर्तरूप सर्वप्रथम सन् 1816 में पेरिस के एक कारीगर ने दिया। उस यंत्र को हॉबी हॉर्स, अर्थात काठ का घोड़ा, कहते थे। पैर से घुमाए जानेवाले क्रैंकों (पैडल) युक्त पहिए का आविष्कार सन् 1865 ई. में पैरिस निवासी लालेमें (Lallement) ने किया। इस यंत्र को वेलॉसिपीड (velociped) कहते थे। इसपर चढ़नेवाले को बेहद थकावट हो जाती थी। अत: इसे हाड़तोड (bone shaker) भी कहने लगे। इसकी सवारी, लोकप्रिय हो जाने के कारण, इसकी बढ़ती माँग को देखकर इंग्लैंड, फ्रांस और अमेरिका के यंत्रनिर्माताओं ने इसमें अनेक महत्वपूर्ण सुधार कर सन् 1872 में एक सुंदर रूप दे दिया, जिसमें लोहे की पतली पट्टी के तानयुक्त पहिए लगाए गए थे। इसमें आगे का पहिया 30 इंच से लेकर 64 इंच व्यास तक और पीछे का पहिया लगभग 12 इंच व्यास का होता था। इसमें क्रैंकों के अतिरिक्त गोली के वेयरिंग और ब्रेक भी लगाए गए थे।

भारत में भी साइकिल के पहियों ने आर्थिक तरक्की में अहम भूमिका निभाई। 1947 में आजादी के बाद अगले कई दशक तक देश में साइकिल यातायात व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा रही। खासतौर पर 1960 से लेकर 1990 तक भारत में ज्यादातर परिवारों के पास साइकिल थी। यह व्यक्तिगत यातायात का सबसे ताकतवर और किफायती साधन था। गांवों में किसान साप्ताहिक मंडियों तक सब्जी और दूसरी फसलों को साइकिल से ही ले जाते थे। दूध की सप्लाई गांवों से पास से कस्बाई बाजारों तक साइकिल के जरिये ही होती थी। डाक विभाग का तो पूरा तंत्र ही साइकिल के बूते चलता था। आज भी पोस्टमैन साइकिल से चिट्ठियां बांटते हैं।

जमाना बदला और कूरियर सेवाएं ज्यादा भरोसेमंद बन गईं, लेकिन साइकिल की अहमियत यहां भी खत्म नहीं हुई। बड़ी संख्या में कूरियर बाँटने वाले भी साइकिल का इस्तेमाल करते हैं। 1990 में देश में उदारीकरण की शुरुआत हुई और तेज आर्थिक बदलाव का सिलसिला शुरू हुआ। देश की युवा पीढ़ी को मोटरसाइकिल की सवारी ज्यादा भा रही थी। लाइसेंस परमिट राज में स्कूटर के लिए सालों इंतजार करने वालों का धैर्य चुक गया था। उदारीकरण के कुछ साल बाद शहरी मध्यवर्ग को अपने शौक पूरे करने के लिए पैसा खर्च करने में हिचक नहीं थी। शहरों में मोटरसाइकिल का शौक बढ़ रहा था। गांवों में भी इस मामले में बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। राजदूत, बुलेट और बजाज समूह के स्कूटर नए भारत में पीछे छूट रहे थे। हीरो होंडा देश की नई धड़कन बन रही थी। यह बदलाव आने वाले सालों में और तेज हुआ। देश में बदलाव के दोनों पहिये बदल गए थे। इसके बावजूद भारत में साइकिल की अहमियत खत्म नहीं हुई है। शायद यही वजह है कि चीन के बाद दुनिया में आज भी सबसे ज्यादा साइकिल भारत में बनती हैं।

 
सायकिल टैक्सी, एम्सटर्डम, २००५

नब्बे के दशक के बाद से साइकिलों की बिक्री के आँकणों में अहम बदलाव आया है। साइकिलों की कुल बिक्री में बढ़ोतरी आई है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में इसकी बिक्री में गिरावट आई है। आसान आर्थिक प्रायोजन की बदौलत लोग मोटरसाइकिल को इन इलाकों में ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। दरअसल, 1990 से पहले जो भूमिका साइकिल की थी, उसकी जगह गांवों और शहरों में मोटरसाइकिल ने ले ली। 2002-03 में दोपहिया गाडि़यों की बिक्री (स्कूटर, मोटरसाइकिल, मोपेड, बिजली से चलने वाले दोपहिए) जहां 48.12 लाख थी, वह 2008-09 में बढ़कर 74.37 लाख हो गई थी। इसका मतलब यह है कि पिछले कारोबारी साल में देश में जितनी साइकिल बिकीं, उतनी ही बिक्री दोपहियों (स्कूटर, मोटरसाइकिल, मोपेड, इलेक्ट्रिक टू व्हीलर) की भी रही।

सायकिल के विभिन्न भाग

 
सायकिल के विभिन्न पुर्जे

बाइसिकिल के विभिन्न भाग निम्नलिखित हैं :

फ्रेम

बाइसिकिल का सबसे महत्वपूर्ण अंग उसका फ्रेम है। फ्रेम की बनावट ऐसी होनी चाहिए कि उसपर लगनेवाले पुर्जें अपना काम कुशलतापूर्वक कर सकें। बाइसिकिल की तिकोनी फ्रेम और आगे तथा पीछे के चिमटे खोखली, गोल नलियों से बनाए जाते हैं। फिर उन्हें फ्रेम के कोनों पर उचित प्रकार के ब्रैकेटों में फँसाकर झाल दिया जाता है। तिकोनी फ्रेम के बनाने में ध्यान रखा जाता है कि उसकी नलियों की मध्य रेखाएँ एक ही समतल में रहें। फ्रेम में लगा आगे का स्टियरिंग सिरा (steering head), उसपर लगनेवाले हैंडिल का डंठल और आगे के चिमटे के डंठल की मध्य रेखाएँ एक दूसरी पर संपाती (coincident) होनी चाहिए। दोनों तरु के चिमटों की भुजाएँ भी उनकी मध्य रेखा से सममित तथा समांतर होनी चाहिए। चक्कों की मध्य रेखा चिमटों की मध्य रेखा पर संपाती होनी चाहिए, अन्यथा बाइसिकिल संतुलित रहकर सीधी नहीं चल सकेगी।

पहिया

पहियों में आजकल नाभि (hub) की स्पर्शीय दिशा में अरे लगाने का रिवाज है। स्पर्शीय अरे, पहिए के घेरे (rim) पर भ्रामक बल भली प्रकार से डाल सकते हैं। प्रत्येक दो आसन्न अरे कैचीनुमा लगकर, हब की फ्लैज (flange) से स्पर्शीय दिशा में झुके रहते हैं। पीछे के पहिए में 40 और अगले में 32 अरे लगते हैं, अत: उसी के अनुसार उसके घेरों में छेद बनाए जाते हैं और हबों की प्रत्येक फ्लैंज में घेरे की आधी संख्या में छेद बनाए जाते हैं। चक्का तैयार करते समय व्यासाभिमुख आठ अरों को पहले लगाकर सही कर लेते हैं, फिर शेष अरों को उसी क्रम से भरते जाते हैं। चित्रों में हब की बाई तरफ की फ्लैंज में ही अरे लगाकर दिखाए गए हैं, जो क्रम से घेरे पर विषम संख्यांकित छेदों में ही बैठे है। सम संख्यांकित छेदों में दाहिनी तरफ की फ्लैंज के अरे बैठेंगे, अत: उनके स्थानों को खाली दिखाया गया है।

तार से बने अरे सदैव तनाव की स्थिति में रहने के कारण तान कहलाते हैं। प्रयोग करते समय भी पहियों के अरों की समय समय पर परीक्षा करते रहना चाहिए, कोई अरा ढीला और कोई अधिक तनाव में नहीं होना चाहिए। उँगली से बजाकर सबको देखा जाए तो उनमें एक सी आवाज़ निकलनी चाहिए, अन्यथा पहिए टेढ़े होकर अरे टूटने लगेंगे। उन्हें कसने का काम घेरे पर लगी निपलों को उचित दिशा में घुमाकर किया जा सकता है।

बॉलबेयरिंग

बाइसिकिल के अच्छी प्रकार काम कर सकने के लिए उसके बॉल बेयरिंगों की तरफ ध्यान देते रहना आवश्यक है। यदि किसी बेयरिंग में से ज़रा भी आवाज़ निकलती हो तो अवश्य ही उसमें कोई खराबी है। उसे खोलकर उसके दोनों तरफ की गोलियों की गिनती कर, कपड़े से पोंछकर साफ चमका लीजिए। यदि कोई गोली टूटी, चटखी या घिस गई हो तो उसे बदल दीजिए, फिर उसकी कटोरी (ball-race) के वलयाकार खाँचे तथा कोनों को देखिए। वे घिसे, कटे, या खुरदरे न हों। यदि खराब हों, तो उन्हें भी बदल दीजिए। यदि उपर्युक्त कोई ऐब न हो तथा गोलियाँ भी एक ही संख्या में तथा समान नाप की हों, तो उसमें तेल की कमी समझनी चाहिए। बेयरिंग के किसी भी भाग में किसी भी प्रकार का कचरा या कीचड़ तो होना ही नहीं चाहिए।

बहुचाल युक्त गीअर नाभि (hub)

 

यह पिछले पहिए में लगाई जाती हैं, जिसके द्वारा सवार अपनी इच्छा और आवश्यकतानुसार बाइसिकिल की चाल के अनुपात को बदल सके। आजकल तीन चाल देनेवाले गीअर हबों का अधिक प्रचार है। ऐसी गीअर नाभि भी बनाई जाती है कि पीछे को, अर्थात् उलटा, पैडल चलाने से ब्रेक लग जाता है। चाल बदलने के लिए जंजीर चक्र और नाभि के बीच की चाल के अनुपात को, नाभि की धुरी के मध्य लगी बारीक कड़ियोंवाली एक जंजीर को खींचकर बदल दिया जाता है। इसे खींचने से नाभि के भीतर लगे गिअरों (gears) की स्थिति बदल जाती है। जंजीर को खींचने का काम तो सवार अपने लिवरों द्वारा ज़ोर लगाकर करता है, लेकिन वापस लौटने की क्रिया नाभि के भीतर लगी कमानी द्वारा स्वत: ही हो जाती है। नाभि के पुर्जे खोलने के लिए, पहले बाएँ हाथ का कोन खोलकर, फिर दाहिने हाथ की तरफ लगी गोलियों की रिंग खोलनी चाहिए।

मुक्त चक्र (Free wheel)

पीछे के चक्के पर इसके लगा देने से सवार जब चाहे पैर चलाना बंद कर सकता है, फिर भी वह पहिया आजादी से घूमता रह सकता है। यह दो प्रकार का होता है, एक तो घर्षण बेलन युक्त और दूसरा रैचेट दाँत युक्त। प्रत्येक मुक्त चक्र में यह गुण होना चाहिए कि भीतरी पुर्जों के अटक जाने से पैडल की जंजीर पर खिंचाव न पैदा हो और दुबारा जब पैडल चलाए जाएँ तब भीतरी पुर्जे एक दम आपस में जुटकर काम करने लगें और फिसलें नहीं। साथ ही चक्र की बनावट धूल और पानी के लिए अभेद्य होनी चाहिए। आजकल रैचेट दाँत युक्त मुक्त चक्र का ही अधिक प्रचलन है। इसके घेरे की भीतरी परिधि पर रैचेट के दाँत कटे हैं, जिनमें यथास्थान लगाए कुत्ते (pawls) अटककर, पैडल की जंजीर के माध्यम से सवार द्वारा दिए हुए खिंचाव को पहिए की नाभि पर पारेषित कर देते हैं। पैडल चलाना बंद होते ही जंजीर ठहर जाती है तथा वे कुत्ते कमानी के जोर से रैचट के दाँतों में बारी बारी से गिरते हैं, जिससे "कटकट" की आवाज होती है।

यदि दुबारा चलाने पर मुक्त चक्र फिसलने लगे, अथवा जाम हो जाए, तो उसे ठीक करने की पहली तरकीब यह है कि उसमें मिट्टी का तेल खूब भरकर पहिए को खाली घुमाया जाए, जब वह सब तेल निकल चुके तब उसमें स्नेहन तेल दे दिया जाए। यदि ऐब दूर न हो, तो चक्र के ढक्कन को खोल कर देखना चाहिए कि कहीं कुत्ते घिस तो नहीं गए हैं, अथवा उनकी कमानियाँ ही टूट गई हों। फिर उसे भीतर से बिलकुल साफ कर टूटे पुर्जे या गोलियाँ नई बदलकर, ढक्कन की चूड़ियाँ सावधानी से सीधी कस देनी चाहिए।

हवाई टायर

टायर को पहिए के घेरे पर जमाए रखने के लिए इसके दोनों किनारों पर या तो इस्पात के तारयुक्त, अथवा रबर की ही कठोर गोंठ बना दी जाती है, जो चक्के के घेरे के मुड़े हुए किनारे के नीचे दबकर अटकी रहती है और भीतरी रबर नली में हवा भर देने से टायर तनकर यथास्थान बैठ जाता है।

भीतरी नली में इतनी ही दाब से हवा भरनी चाहिए जिससे टायर सवार का बोझा सह ले और पहिए का घेरा सड़क के कंकड़ पत्थरों से नहीं टकराए, अन्यथा नली के कुचले जाने और टायर के फट जाने का डर रहेगा। आवश्यकता से अधिक हवा भर देने से टायर का लचीलापन कम होकर बाइसिकल सड़क पर उछलती हुई चलती है, लेकिन आवश्यक मात्रा में कसकर हवा भर देने से पहिए का व्यास अपनी सीमा तक बढ़ जाता है और अच्छी सड़क पर चलते समय पैडल से कम मात्रा में शक्ति लगानी पड़ती है।

बाल्व

भीतरी नली में हवा भरने के लिए बुड के हवा वाल्ब का बहुधा प्रयोग होता है, जिसकी बनावट चित्र 13. में स्पष्ट दिखाई गई है। रबर का वाल्ब ट्यूब फटा, कुचला और सड़ा गला नहीं होना चाहिए। बाल्व के प्लग के ऊपरी सिरे पर लगनेवाली टोपी सदैव लगी रहनी चाहिए। बाल्व का आधार नट घेरे पर सख्ती से कसा रहना चाहिए। बाल्व का प्लग, रबर के बाल्व ट्यूब सहित बिना रुकावट के प्रविष्ट होकर, खाँचों में बैठ जाना चाहिए।

पैडल क्रैंक

पैडल क्रैकों को उनकी धुरी से कॉटरों (cotters) द्वारा ही जोड़ा जाता है। बाइसिकिल के गिरने, अथवा दुर्घटना के कारण, यदि क्रैक या धुरी टेढ़ी हो जाएँ, तो क्रेंकों को जुदा करने के लिए, उनपर लगे कॉटर के नट को खोलकर, काटर के चूड़ीदार सिरे को हथौड़े से ठोंक कर कॉटर को निकाल लेना चाहिए, लेकिन ध्यान रहे कि चूड़ियाँ खराब न हो जाएँ। क्रैंक के वक्ष (boss) के नीचे लोहे की कोई लाग लगाकर ही कॉटर ठोंकना चाहिए, अन्यथा क्रैंक धुरी या बॉल बेयरिंग पर झटका पहुँचेगा। खराबी के कारण यदि दोनों क्रैंक एक सीध में न हों, तो कॉटर के चपटे भाग को रेतकर, या पलटकर, समंजित कर देना चाहिए। यदि क्रैंक अपनी धुरी पर ढीला हो, तो कॉटर को अधिक गहराई तक ठोकने से भी काम बन जाता है। बहुत दिनों तक ढीले कॉटर से ही बाइसिकिल चलाते रहने से कॉटर और क्रैंक का छेद, दोनों ही, कट जाते हैं तथा धुरी का खाँचा भी बिगड़ जाता है। अत: नया कॉटर बदलना ही अच्छा रहता है। बाइसिकिल के गिरने से अकसर पैडल पिन भी टेढ़ी हो जाती है। ऐसी हालत में पैडल के बाहर की तरफ वाले वेयरिंग की टोपी उतारकर उसका समंजक कोन निकालकर गोलियाँ हाथ में ले लेनी चाहिए। फिर पैडल की फ्रेम को सरकाकर, भीतरवले वेयरिंग की गोलियाँ भी सम्हालकर ले लेनी चाहिए, ऐसा करने पर पैडल निकल आएगा और पैडलपिन ही क्रैंक में लगी रह जाएगी। उसका निरीक्षण कर तथा गुनियाँ में सीधा कर, पैडल को यथापूर्व बाँध देना चाहिए।

चालक जंजीर

 
सायकिल की चालनशृंखला (ड्राइव चेन) का विस्तृत रूप

यह जंजीर छोटी छोटी पत्तीनुमा कड़ियों, बेलनों और रिवटों (revets) द्वारा बनाई जाती है। इसे साफ कर, तेल की चिकनाई देकर और उसके खिंचाव को संमजित कर ठीक हालत में रखना चाहिए। जंजीर के रिवटीय जोड़ों के ढीले होने तथा बेलनों के घिस जाने से उसकी समग्र लंबाई बढ़ जाया करती है। पैडल के दंतचक्र के दाँतों का पिच (pitch) तो बदलता नहीं, अत: जंजीर चक्र से उतर कर तकलीफ देती है। इसकी पहिचान यह है कि पत्र पर चढ़ी हुई जंजीर के स्पर्शचाप (arc of contact) के बीच में, उसे अँगूठे और तर्जनी से पकड़कर बाहर की तरफ खींचा जाए। यदि जंजीर लगभग इंच ही खिंचती है, तब तो ठीक है और यदि इंच तक खिंच जाती है तो अवश्य ही घिसकर ढीली हो गई होगी। अत: बदल देनी चाहिए।

हाथ के ब्रेक

पहियों के घेरों पर दबाव डालनेवाले हस्तचालित ब्रेकों की कार्यप्रणाली लीवर और डंडों के संबंध पर आधारित होती है। बाऊडन (Bowden) के ब्रेक, इस्पात की लचीली नली में लगे एक अतंपीड्य तार के खिंचाव पर आधारित होते हैं। ब्रेकों को छुड़ाने के लिए कमानी काम करती है। ब्रेक, सुरक्षा का प्रधान उपकरण है, अत: ब्रेक के डंडे सुसमंजित रहने चाहिए, अर्थात् ऐसे रहने चाहिए कि वे अरों या टायरों में न अटकें। डंडे मजबूत होने के साथ साथ सरलता से जोड़ों पर घूमनेवाले होने चाहिए। देखने में अच्छे और पुर्जें साफ सुथरे भी रहने चाहिए।

सन्दर्भ

  1. "Bicycle History [साइकिल का इतिहास]". मूल से 14 दिसंबर 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 20 जनवरी 2008.

बाहरी कड़ियाँ