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त्रिक्षेत्रीय सिद्धांत

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त्रिक्षेत्रीय सिद्धांत (Three-sector theory) एक आर्थिक-सिद्धांत है जो अर्थव्यवस्थाओं को तीन भागों में बांटता है: प्राथमिक (कृषि, शिकार, खनन), द्वितीय (विनिर्माण या मैन्युफ़ैक्चरिंग) और तृतीय (सेवाएँ)। इसके अनुसार इन तीनों क्षेत्रों की अलग-अलग आवश्यकताएँ और विकास-क्रम होते हैं और यह तीन किसी देश, राज्य या समाज के आर्थिक विकास के अलग-अलग स्तर दर्शाते हैं। इस सिद्धांत की व्याख्या ऐलन फ़िशर, कॉलिन क्लार्क और झ़ों फ़ुरास्तये नामक तीन अर्थशात्रियों ने की थी।[1][2][3]

प्राथमिक आर्थिक क्षेत्र और प्राथमिक-प्रधान समाज

प्राथमिक क्षेत्र में मानव केवल उन चीज़ों का सीधा उपयोग करता है जो प्रकृति उसे उपलब्ध कराती है, जैसे कि कृषि के लिये भूमि, ज़मीन से खोदकर निकाले जाने वाले खनिज, वनों में माँस व अन्य प्रयोगों के लिये प्राणी, नदियों-समुद्रों से मछलियाँ, इत्यादि। प्राथमिक क्षेत्र के कार्यों में भाग लेने के लिये अधिक शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती लेकिन अन्य क्षेत्रों की तुलना में जितना श्रम लगता है उसके अनुसार कम मूल्य का उत्पादन होता है। इस क्षेत्र के कार्यों में अक्सर मानव को शारीरिक श्रम करना होता है। यह भी देखा गया है कि जो अर्थव्यवस्थाएँ प्राथमिक-प्रधान होती हैं उनमें सामाजिक स्तरण भी अधिक होता है, यानि समाज की कुछ श्रेणियाँ अधिक शक्तिशाली होकर राज करती हैं और अधिकतर लोगों के काम का कुछ भाग ले लेती हैं।

द्वितीय आर्थिक क्षेत्र और द्वितीय-प्रधान समाज

द्वितीय क्षेत्र में मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर मानव उपयोग की वस्तुएँ बनाई जाती हैं, जिस से कम श्रम से अधिक उत्पादन हो पाता है। द्वितीय-प्रधान समाजों में औसत आय बढ़ती है। द्वितीय क्षेत्र के कार्यों में शिक्षा और निपुणता महत्वपूर्ण होती है, जिस से सामाज में शिक्षा फैलती है और जागृति बढ़ती है। मशीनीकरण से प्राथमिक क्षेत्र के कार्य भी मशीनों द्वारा किये जाते हैं और अधिकतर लोग मशीनों में काम करते हैं। औद्योगीकरण में समाज प्राथमिक-प्रधान से द्वितीय-प्रधान बनते हैं।

तृतीय आर्थिक क्षेत्र और तृतीय-प्रघान समाज

इसमें मानव एक-दूसरे को सेवाएँ प्रदान करते हैं, जिनमें वित्तीय सेवाएँ, कला सेवाएँ, शिक्षा सेवाएँ, सूचना सेवाएँ, ज्ञान सेवाएँ, मनोरंजन सेवाएँ, इत्यादि शामिल हैं। तृतीय-प्रघान समाजों में प्राथमिक और द्वितीय क्षेत्र के अधिकतर काम मशीनों द्वारा किये जाते है। शिक्षा स्तर बहुत उठ जाता है।

सामाजिक विकास और क्षेत्रीय आंकड़े

फ़ुरास्तये के अनुसार जैसे-जैसे समाज तीन चरणों से विकसित होकर गुज़रता है, उस समाज में इन तीन भिन्न क्षेत्रों में जुटे हुई जनसंख्या का प्रतिशत बदलता है।[4][5]

प्रथम चरण: पारम्परिक सभ्यताएँ

प्रथम विकास चरण में:

  • प्राथमिक क्षेत्र: ६५%
  • द्वितीय क्षेत्र: २०%
  • तृतीय क्षेत्र: १५%

द्वितीय चरण: संक्रमण काल

द्वितीय विकास चरण में:

  • प्राथमिक क्षेत्र: ४०%
  • द्वितीय क्षेत्र: ४०%
  • तृतीय क्षेत्र: २०%

तृतीय चरण: तृतीय सभ्यताएँ

द्वितीय विकास चरण में:

  • प्राथमिक क्षेत्र: १०%
  • द्वितीय क्षेत्र: २०%
  • तृतीय क्षेत्र: ७०%

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. Fisher, Allan GB. "Production, primary, secondary and tertiary." Economic Record 15.1 (1939): 24-38
  2. Rainer Geißler: Entwicklung zur Dienstleistungsgesellschaft. In: Informationen zur politischen Bildung. Nr. 269: Sozialer Wandel in Deutschland, 2000, p. 19f.
  3. Jean Fourastié: Die große Hoffnung des 20. Jahrhunderts. ("The Great Hope of the 20th Century") Köln-Deutz 1954
  4. Bernhard Schäfers: Sozialstruktur und sozialer Wandel in Deutschland. ("Social Structure and Social Change in Germany") Lucius und Lucius, Stuttgart 7th edition 2002
  5. Clark, Colin (1940) Conditions of Economic Progress